Categories
कविता गीत

गंवइहा

मैं रइथौं गंवई गांव मं मोर नाव हे गंवइहा,
बासी बोरे नून चटनी पसिया के पियइया।
जोरे बइला हाथ तुतारी खांध म धरे नागर,
मुंड़ म बोहे बिजहा चलै हमर दौना मांजर।
पानी कस पसीना चूहै जूझै संग म जांगर,
पूंजी आय कमाई हमर नौ मन के आगर।
चार तेदूँ मउहा कोदइ दर्रा के खवइया,
मैं रइथौं गंवई गांव मं मोर नाव हे गंवइहा।
सावन भादो महिना संगी चले ल पुरवाई,
मगन होके धान झूमैं झूला के झूलाई ।
झिमिर झिमिर पानी के संग निंदाई लगाई,
मन ल मोहे खेती खार धान के हरियाई।
चिखलाकांदो बरसत आगी अंगरा म रेंगइया,
मैं रइथौं गंवई गांव मं मोर नाव हे गंवइहा।
खेती किसानी हमर जिनगी के अधार,
छत्तीसगढ महतारी जेकर महिमा हे अपार।
छितका कुरिया खदर छाये महल के बरोबर,
गाँव के तरिया नरवा संगी हमर हे धरोहर।
सुख दुख के मैं साथी संग के देवइया,
मैं रइथौं गंवई गांव मं मोर नाव हे गंवइहा।
रचना – मनोहर दास मानिकपुरी