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कविता गीत

छत्तीसगढ़िया

छत्तीसगढ के रहइया,कहिथें छत्तीसगढ़िया,
मोर नीक मीठ बोली, जनम के मैं सिधवा।
छत्तीसगढ के रहइया,कहिथें छत्तीसगढ़िया।
 कोर कपट ह का चीज ये,नइ जानौ संगी,
चाहे मिलै धोखाबाज, चाहे लंद फंदी।
गंगा कस पबरित हे, मन ह मोर भइया,
पीठ पीछू गारी देवैं,या कोनो लड़वइया।
एक बचन, एक बोली बात के रखइया,
छत्तीसगढ़ के रहइया, कहिथें छत्तीसगढ़िया।
 देख के आने के पीरा, सोग लगथे मोला,
जना जाथे ये हर जइसे झांझ झोला।
फूल ले कोवर संगी, मोर करेजा हावै,
मुरझाथे जल्दी, अति ह न सहावै।
जहर महुरा कस एला, हंस हंस पियइया,
छत्तीसगढ़ के रहइया, कहिथें छत्तीसगढ़िया।
मोर बर रहय, न रहय, करन कस हौ दानी,
दान पुन धरम – करम करत जिनगानी।
माने म मैं देवता, बिफडेव़ तौ फेर नागिन,
धोखा म झन रइहीं, आघूले नइ लागिन।
करतब के मैं पूजा, दिन – रात के करइया,
छत्तीसगढ़ के रहइया, कहिथें छत्तीसगढ़िया।
रचना – मनोहर दास मानिकपुरी