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कविता

तीन कबिता

Sunita Sharma1
ब्रम्ह मुहूरत में उठ जाबे .
धरती माँ ल कर लेबे परनाम .
सुमिरन करबे अपना कुल देवता ल ,
लेबे अपन इष्ट देव के नाम .

बिहिनिया बिहिनिया नहाके ,
तुलसी मैया मा दिया बारबे .
एक लोटा जल , अरपन कर .
एक परिकरमा लगाबे ..

घर म होही, लड्डू गोपाल .
विधि पूर्वक वोला पूजन करबे .
अंगना दुवार बने बहार के .
सुग्घर चौक पुरबे..

लईका लोग के नाश्ता पानी ,
अपन सुहाग के दाना पानी .
बने मया लगाके रान्धबे.
सिरतोन के लक्ष्मी तै कह्लाबे .

घर-परिवार और लईका,पति बर ,
रहिबे कभू उपास ..
मन ल शांति मिलही अऊ.
दिन हो जाही अडबड ख़ास .

रसोई समेट के बांचे खाना ल खाथस,
तभे ते , तैहाँ गृहलक्ष्मी कहाथस.
उपास मा मिल जाथे, सुग्घर पकवान .
शुद्ध ह्रदय से बोलो , जय हो भगवान..

2

मोला सुरता हे , वो रस्सी के खटिया .
जम्मो झन, गोठियावन सारी रतिहा .
उपर बादर डाहर चंदैनी बगरे राहय.
नीचे चलत रहय हमार मन की बतिया .

डोकरा बबा कहय सरवन कुमार के कहनी .
ओधे राहन हमन जम्मो भाई बहिनी .
डोकरी दाई के चले , ध्रुव तारा के कथा .
सुने में आवे संगी , तब अडबड मजा .

दाई आवय , मुड़ी ल सहलावय..
बरसय धारे धार वोखर मया ..
बाबू के पंछा ल फिन्जो के .
धूकन वोला , जुड़ जुड़ हवा ..

तईहा के बात ल अब बईहा ले गे .
अब ते कखरो मेर बोले के बेरा नई ये .
वईसन सुग्घर अब रतिहा अऊ..
अपन मया के कहूँ कना डेरा नई ये .

(सुरता = याद , खटिया = खाट, जम्मो = सब , गोठियाना = बातचीत करना , कहनी = कहानी , दाई = माता, ददा = पिता, डोकरा ददा = दादा जी , डोकरी दाई = दादी , पंछा = अंगोछा , फिन्जो = भिगाकर , धूकन = हवा करना , तईहा – तब के .. बईहा = दीवाना पागल , सुग्घर = सुन्दर , मया = मोहब्बत , बेरा = समय , अडबड = बहुत , मुडी = सर , कखरो = किसी का )
सादर नमन ..

3

कोहा पथरा के पिट्ठूल राहय,
घानी मुनी म संगी किन्जरय.
नदी पहाड़ के खेल नंदागे
टी वी सीरियल के दिन आगे .

“फीकी फीकी व्हाट कलर ”
कोन सा रंग …. गुलाबी ..
रंग खोजत मनखे हप्टागे.
टी वी सीरियल के दिन आगे .

गोटा खेल म मंझनिया सिरागे .
छू छुवल खेलत लईका भुलागे .
संझा बेरा बिल्लस म पहागे .
टी वी सीरियल के दिन आगे .

भंवरा – गोटा, रेसटीप कहाँ गे .
पानी म भिन्जे के दिन ह आगे .
आज के लईका जम्मो भुलागे
टी वी सीरियल के दिन आगे .

सुनीता शर्मा
रायपुर छत्तीसगढ़

5 replies on “तीन कबिता”

बडिया लिखे हावस सुनिता ! मोर गॉव के घर अँगना के सुरता आगे । मोला तुलसी चौंरा हर दिखत हावै ।

छत्तीसगढ़ म रस्सी के खटिया नइ होवय नोनी, बगई—डोरी के, सुमा—डोरी के, नइ ते कांसी—डोरी के खटिया होथे। छेदा वाले ल बरदखिया खटिया कहिथें।
अइसने, हमन एकेच् ठो चंदैनी के नाव ल जानथन, सुकुवा के।
एको ठन अउ बने असन कविता लिखव जी, अइसन बहुत हो गे।

बहुत ही शानदार कविता हवे, कविता हा सीधा दिल माँ पहुचत हवे, बचपन के दिन याद आगे, जब थोरकन चीज माँ घलो संतुष्टि मिल जय, अब के समय म तो आदमी के पास सोन के हंडा रथे तभो हाय हाय करके दस प्रकार के बीमारी माँ मर जाते, कविता के जितना तारीफ करे जय कम लगते ,

मस्त रचना है …. आंचलिक भाषा आनद देती है …

वाह सुनीताजी एक दम नान्हेपन सुरता करादेव का बात हे । अच्छा प्रभावी रचना हे आपके । आप ल बधाई

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