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कहानी

दू रूपिया के चॉंउर अउ घीसू-माधव: जगन

रेल गाड़ी ह टेसन म छिन भर रूकिस अउ सीटी बजात आगू दंउड़ गिस।
छिने भर म टेसन ह थोड़ देर बर बदल जाथे। सइमों-सइमों करे लागथे। सोवत, नींद म बेसुध कोई प्राणी ह जइसे अकचका के, झकनका के जाग जाथे। कोनो चघत हे, कोनो उतरत हे। कोई आवत हे, कोई जावत हे। कोई कलेचुप हे, कोई गोठियावत हे। कोई हाँसत हे, कोई रोवत हे। कोई दंउड़त हे, कोई बइठत हे।
चहा बेंचइया, फूटे चना-मुर्रा बेंचइया, केरा-संतरा बेचइया, सबके सब मानों नींद ले जाग जाथें। कुली, आटो वाले अउ रिक्‍शा वाले मन के नजर ह गिराहिक मन के पीछा करे लागथे। किसम-किसम के कुली अउ किसम-किसम के रिक्‍शा वाले। सब ल काम मिलथे, सबके गुजारा होथे। कतरो रिक्‍शा वाले अउ आटो वाले मन या फेर वोकर आदमी मन गिराहिक ठसाय बर सरग निसैनी तक पहुँच जाथे त कतरो मन बाहिरेच म गिराहिक पटावत रहिथें – ‘‘साहब रिक्‍शा? मेडम जी रिक्षा? बाबू साहब, चलें क्या?’’ चिल्ल-पों मच जाथे। कतरो मन कोई यात्री से नजर मिलते सात आँखी ल चमका के अउ मुड़ी ल मटका के, मुँहू ले कुछू बोले बिना सवारी ल तउल डरथें – ‘‘चलें क्या?’’
कतरो के व्यवहार-सुभाव म सज्जनता रहिथे त कतरो के सुभाव म हुड पना। कतरो मन चिरौरी करथें त कतरों मन रहीसी बताथें; रिक्‍शा वाले मन धला अउ सवारी मन तको।
सबके आदत एक बराबर कइसे होही?
जउन ल गिराहिक मिलथे, जेकर गिराहिक पटथे वोमन रवाना हो जाथें। जउन ल सवारी नइ मिलय तउनों मन दूसर ठिकाना कोती रेंग देथें। थोड़ देर म माहौल ह धीरे-धीरे जस के तस।
गाड़ी गेय पाँचेक मिनट हो गे हे। जगन रिक्‍शा वाला ह अभी तक खड़ेच् हे।
जगन पढ़े-लिखे हे। नौकरी नइ मिलिस त का करे, रिक्‍शा के हेंडिल ल थाम लिस। पेट बिकाली म कुछ न कुछ तो करेच् बर पड़ही। चोरी-चपाटी म लाज हे, मेहनत-मजूरी करे म का के लाज-शरम? बने चिक्कन-चांदुर रहिथे; रिक्‍शा ल घला नवा बिहाती कस सजा के, चमका के राखथे; सब के संग इज्जत से बात करथे। पहिनावा-ओढ़ावा अउ बात करे के तरीका ल देख के लोगन समझ जथें; आदमी ह पढ़े-लिखे होही। सब ला इज्जत देथे त सबले इज्जत घला चाहथे जगन ह, फेर रिक्‍शा वाले मन के कोन ह इज्जत-लिहाज करथे?
पढ़े-लिखे होंय कि अनपढ़, जइसे पनही के धँधा करइया ह पनही ल देख के आदमी के हैसियत ल अजम डरथे, वइसने रिक्‍शा वाले मन संदूक-पेटी, झोला-झाँगड़ी, अउ समान-तमान ल देख के सवारी के हैसियत ल अजम डरथें।
जगन ह तो पढ़े-लिखे हे, सवारिच् के नहीं, दीन-दुनिया के घला रंग-ढंग, बात-व्यवहार, चलन-चलागन, नीयत-नीति के एक-एक ठन बात ल अजमत रहिथे, गुनत रहिथे, विचारत रहिथे, सदा खुस रहिथे।
न रहीस मन रिक्‍शा चढ़े बर आवंय, न गरीब कना रिक्‍शा चढ़े बर पइसा रहिथे। छोटे-मोटे व्यपारी, करमचारी, बाबू , मास्टर-मुंशी, इंखरे ले रोज पाला पड़त रहिथे।
लोगन के मोल-भाव करई म जगन ल बड़ गुस्सा आथे। वो ह सोंचत रहिथे – कतरो पइसा ल बेमतलब पान-गुटखा, बिड़ी-सिगरेट म फूँक दिहीं फेर रिक्‍शा वाले मन संग एक-एक रूपिया बर झिकझिक करहीं। का कम मेहनत करवाथें? अपन समान ल जोरवाहीं, रस्ता म चहा पीये के मन करही तब होटल ले चहा-पानी मंगवाहीं, पहुँचेस तहाँ घर भीतर तक समान ल डोहरवाहीं, कुली समझ लेथें; खुद ल रहीस के औलाद समझथें। तब फेर एक-एक पइसा बर झिकझिक काबर करथें?
कालिच् के बात आय, दू झन साहब रिहिन, कोन्हों रिक्षा- आटो वाला मन संग मोल-भाव करइ म कंझाय रिहिन होहीं वोकरे उतारा ल उतारत रहंय; गोठियावत रहंय – ‘‘दो रूपय के चाँवल ने सब सालों का दिमाग खराब कर रखा है। फालतू गपशप करके, ताश खेल कर या मटरगष्ती करके दिन बिता देंगे; और कुछ नहीं तो दारू पीकर सड़क पर लुड़के पड़े रहेंगे, पर काम नहीं करेंगे।’’
जगन से रहि नइ गिस; तीर म जा के किहिस – ‘‘एक बात कहंव साहब?’’
साहब मन पहिली तो जगन ल एड़ी ले मुड़ी तक मिनट भर ले घूर के देखिन, फेर दुनिया भर के हिनमान अउ तिरस्कार ल अपन आँखी म भर के मुँह ल बिचका दिन, मानो कहत होंय – ‘‘पूछो?’’
जगन कहिथे – ‘‘पैतीस किलो चाँउर म एक झन गरीब परिवार ल महीना भर म के रूपिया के सरकारी सबसिडी मिलथे?’’
साहब मन कुछू नइ बोलिन।
जगन ह फेर किहिस – ‘‘आप मन ल कतिक सरकारी सबसिडी मिलथे तेकर हिसाब कभू लगाय हव? नइ लगाय होहू त अब लगाव – गैस सिलेंडर के सबसिडी, पेट्रोल के सबसिडी, डेड़ लाख रूपिया म दस परसेंट इनकम टेक्स म छूट, कतिक होइस बताव?’’
एक झन साहब ह गुस्सा-के किहिस – ‘‘अरे जा ना यार .., बेमतलब क्यों मुँह लगता है।’’
सच ल आँच का? जगन ह फेर किहिस – ‘‘कोन्हों सरकारी कर्मचारी केे, चपरासी के घला एक दिन के तनखा ह छै सौ रूपिया ले कम नइ हे। मन होवत हे ते काम करत हें, नइ ते अखबार पढ़ के, केंटिन म चहा पी के, या फिर एलम-ठेलम करके टाइम पास कर देथें; चार नइ बजे पाय खिसक जाथें; ये मन नइ दिखंय?’’
दू रूपिया के चाँउर म सब मजदूर अलाल हो गें, निकम्मा हो गें, चाँउर ल बेच-बेच के दारू पी के ढँलगें रहिथे? अइसने बात ल सुन-सुन के जगन के मति ह छरियाय रहिथे। अइसने हे त अतेक काम ल कोन करथे?
रतन साहब के सौदा ककरो से नइ पटिस। बड़े-बड़े दू ठन, लदलद ले गरू षूटकेस हे नइ ते रेंगत चल देतिस; रेंगे म एक्सरसाइज घला हो जाथे। अउ नही ते बबलू ल बला लेतिस, बाइक ले के आ जातिस।
खड़े-खड़े दूरिहा ले रतन साहब ल देख डरे रहिथे जगन ह। दू ठन बड़े-बड़े षूटकेस ल दूनों हाथ म उठा के तनतिन-तनतिन आवत रहय। सीढ़िया म चढ़त-उतरत दसों धाँव ले सुस्ताइस हे। मार सइफों-सइफों करत हे। कपड़ा मन ह पसीना म भींग के बदन ले चिपक गे हें ।
रतन जी ल जगन ह बनेच् जानथे। छोटे कद के आदमी, घूँस मुसवा कस घुस-घुस ले मोटाय हे। घूस खाय म उस्ताद हे, मोटाबेच् करही। मतलब रही तब बड़ा मीठ-मीठ गोठियाही; नइ हे ते रौब झाड़ही। जिला कार्यालय म बड़े बाबू हे। रोज पचासों आदमी के आवेदन पत्र वोकर हाथ म आथे। वोकर बिना आगू नइ सरके। सोझ मुँह बात नइ करे। आवेदक मन ल दसों दिन झुलाही, दसों ठन नियम-कानून बताही, पचासों ठन बहाना बनाही, जेब जभे गरम होही तभे काम करही।
बड़ कांइया हे। कोनों कुली, कोनों रिक्‍शा वाले संग सौदा नइ ठसिस होही। अपन कोती आवत देख के जगन ह जानबूझ के दूसर कोती मुँहू कर दिस।
नजीक आ के दुनों षूटकेस मन ल आस्ते से जमीन म मड़ाइस। पेंट के डेरी जेब ले झक धोवा उरमाल निकाल के चेहरा के पसीना ल पोंछिस। पल भर देखिस; सोंचिस होही, रिक्‍शा वाले ह ‘कहाँ जाना हे साहब’, कहिके पूछबेच् करही।
जगन ह कुछू नइ बोलिस।
हारे दाँव रतनेच् साहब ल पूछे बर पड़ गे- ‘‘ऐ रिक्षा, खाली है?’’
आदमी ल जब कोनों रिक्‍शा कहिथे तब जगन ल बड़ गुस्सा आथे। आदमी ल घला रिक्‍शा बना देथें, बेजान। फेर मन मसोस के चुप रहि जाथे; चलागन बन गे हे। फेर सोंचथे, रिक्षच् ताय आदमी ह, आदमिच् ह तो ढोथे सब ल।
जगन ह मुड़ी हला के कहि दिस – ‘‘हाँ।’’
‘‘अरे भई पूछ रहा हूँ , खाली हो क्या? किला पारा चलना हैै।’’ अब थोरिक नरमा के बोलिस रतन साहब ह। ‘‘कितना लोगे?’’
जगन ह मन म सोंचिस, नियम-कानून वाले मन संग नियम कानून वाले तरीका से ही बात करना चाहिये। हिसाब लगाइस – ‘आदमी के पचीस, समान के पचीस, दस समान चढ़ाय के, दस समान उतारे के, कुल हो गे सŸार – ‘‘सŸार रूपिया।’’
‘‘सŸार रूपिया?’’ रतन साहब ह मुँहू ल फार दिस। किहिस – ‘‘अरे बाबा, लूट है क्या?’’
‘‘कोन लूटत हे साहब?’’
‘‘और नहीं तो क्या, बीस का सत्त र बता रहे हो।’’
‘‘बीस नहीं साहब, पच्चीस रूपिया हे किलापारा के एक सवारी के। इही हिसाब से बतावत हँव’’
‘‘तब का मंय ह तीन झन दिखत हंव जी?’’ रतन साहब ह अब छत्तीासगढ़ी म उतर गे।
‘‘एक सवारी के बरोबर ये सूटकेस मन हे’’
‘‘अउ?’’
‘‘चढाय-उतारे के बीस।’’
‘‘आदमी के साथ उसका सामान तो होता ही है न।’’
‘‘समान-समान म अंतर भी तो होथे न?’’
‘‘चढ़ाने-उतारने का काम हम खुद कर लेंगे भाई।’’
‘‘तब फिर पचास रूपिया लगही।’’
रतन साहब ह तीस रूपिया ले आगू नइ बढ़िस अउ जगन ह पचास ले कम म राजी नइ होइस। काबर होही, मेहनत के सही मजदूरी लेय के वोकर हक बनथे, सबके हक बनथे।
रतन साहब ह झल्ला के कहिथे – ‘‘इंसानियत भी कोई चीज होती है कि नहीं।’’
‘‘हमन कहाँ इंसान आवन साहब, हमन तो रिक्‍शा आवन।’’
जगन ह मन म सोंचथे, जनता के जउन काम ल करे बर सरकार ह येला नौकरी देय हे, तनखा देवत हे, तउनो ल बिना घूंस लेय नइ करे अउ अब इंसानियत के बात करत हे। गरीब, मजदूर मन ल तुम कब इंसान समझथो?
रतन साहब ह चुरमुरा के अपन दूनों षूटकेस ल उठाइस अउ तनतिन-तनतिन करत होटल कोती रेंग दिस। जावत-जावत भुनभुनावत रहय, ‘‘दो रूपिया के चाँवल ने सब सालों को घीसू-माघव बना दिया है।’’
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कुबेर