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व्यंग्य

बियंग : रचना आमंतरित हे

ए खभर ल सुनके कतको अनदेखना इरखाहा मन के छाती फटइया हे। हमन बड़ गरब गुमान से सूचित करत हावन के साहित जगत म जबरन थोपे-थापे, लदाए-चढ़े साहितिक संसथा ‘धरती के बोझ’ हॅं अपन नवा किताब ‘‘बेसरम के फूल’’ के परकासन करके अतिसीघरा साहित जगत म अति करइया हे। जेन हॅं तुहर घुनावत टेबुल म दिंयार चरत माढ़े फोकट फालतू किताब मन संग धुरियावत दांत निपोरत साहित के नाक ल काटे म कोनो किसिम ले कसर नइ छोड़य। पढ़इया के मन म घलो फुसका असर नइ छोड़य। जानबा रहय के ‘धरती के बोझ’ संसथा हॅं देस-परदेस तो दूरिहा के बात ए पारा-परोस म निम्न इस्तर के अब तक चटरहा मंगलू, लपरहा चमचा, झोला छाप चेला, बासी नून अउ चटनी, का साग ए बाई, उंच मनखे के नीच नीयत, मोर सुवारथ, ईरखाहा के पीरा, धूर्रा-माटी, छपट के देख अपट के मर अइसन कतको किताब के परकासन करके हमरे मुंह जुबानी लोकपिरियता के फुलगी म ओरमे इतरावत झूलत हे। जेन ह कोन बेरा टूटके भूंइया म भदाक ले गिर परही तेखर पता हमी ल नइहे। भूइया म गिरे के हमला कोनो डर तरास नइहे त तुमन काबर डरव।

अइसे भी साहित संस्कीरति के जम्मो डारा हॅं मुनगा कस डारा रटहा होगे हवय। ए बात ह जग जाहिर हवय। अब साहित के पढ़इया लिखइया समझइया मन के अंकाल परगे हवय। दिखे म बुधिजीवी मनखे घलो भीतर ले मंदबुधि अउ परबुधिया रहीथे। जेन ल देखबे तेने हॅं मंद रस म टोटा के आवत ले बूड़े उबुक -चुबुक होवत हावय। मंद रस ले ही साहित के अउ जम्मो रस के धार हॅं फूटके बोहाथे, चुचुवाथे। बांचे खुचे हुसियार साहितकार मन पांव धरके गोड़धोवन म पाए पद अउ परतिस्ठा के कुसियार ल चुहकत हांसत उंच पार म नीच नैनी बगुला भगत कस बइठे सासन समाज अउ सासन के मॅजा उड़ावत हे। अब आज के जबाना साहित संसकीरति के नइ रहि गे। भलकि कटरीना, करीना, सन्नी लिओन अउ पूनम पाण्डे के झोली म घुसरत जावत हवय। अब सुना चुटकुला अउ जिनगी ल राख कुनकुना के चलागन बाड़ गे हे।

हमर ए परकासन म नान्हे -नान्हे हाना जोरइया, चुटकुला कहइया, गॅवइहा ददरिया गवइया, बेअरथी – दूअरथी तुकबंदी करइया, इस्तरहीन रचनाचोर मन सामिल होही। सौ सौ कोस तुंहर ले दुरिहावत भाग हॅ अब तुंहर जिनगी म विराजमान होही। जेखर ले तुमन फोकटइहा रचनाकार के भरम ल सुघ्घर छोल- चांच धो-मांज, पाल-पोस, साज-सिंगार के नकटा-कुटहा कस नाक ल उंच करके ए गिरत समाज म संभर-संभल के सॅंहिरावत जी सकत हव। एखर खातिर तुमन ल हमर जय बोलाना चाही।

एकर पहिली के हमर मांग सुनके तुमन सोंचते गुनत दिन ल पहा देवव, हमर खातेच नानकुन संसथा के बडे़ जनिक (अन-) उचित परिचे देना चाहत हंव। हमर संसथा ‘‘धरती के बोझ’’ ल पारा- परोसी तको नइ जानय। ए हमार मन के मनसूभा हरे के संसथा ह देस-विदेस इस्तर के ‘सुनामी’ संसथा हरे। संस्था के बइठका म कभू कोनो नइ सकेलावय। जम्मो साहितकार मन संसथा के अधक्छ ले जरत-चुरत नराज चलत हवय। गिरे, परे, डरे, अपटे, झपटे अउ निपटे मनखे मन ही एकर सदसिया हावय। अधक्छ ह अपन घर-परवार के सदसिया, अपन झोलाछाप चेला-चपाटी अउ चेपटी छाप चौपाल चपाटी मन ल चहा पीये के बहाना अपन घर म सकेल के बइठका ल निपटा लेथे। अपने मुंह म अपन अधक्छ होय के घोसना ल करके ‘भुंइफोर अधक्छ ‘ कहावत हवय। जेन ला एती-उती हलावत इंहा-उहां नकटा कस मटमटावत घूमत रहीथे। कोनो काल के पद पाइस त हगत मूतत गुन गाइस इही ल कहीथे। संसथा के जम्मो काम -बूता ल महींच हॅं अकेल्ला कर डारहूं कहीथे। जब ले सुने हे के अकेल्ला चना भांड़ का कुकरी के गार ल तको नइ फोर सकय तब ले रचना मंगाए सकेले के बीड़ा उठाए बीड़ी फूंकत घूमत हे। तक ले एला सुवास के बेमारी हॅ पोटार के धर ले हे। जब देखबे तब हॅप हॅप करत रहिथे। दुनिया भर के बोझहा ल हमार ‘धरती के बोझ’ के अधक्छे हॅ अपन मुड़ म लाद के चलथे। पूत के पांव पलने म दिखथे कहिथे तेन सही बात होथे जान जावव। अधक्छे ह अपन नाम के पाछू कुती पूछी म बरपेली ‘‘निरमल’’ उपनाम घलो जोड़ डरे हवय। देखबे त थोथना म कांही सुघरई नइहे। दूनों आंखी के कोंटा म चोबीसो घंटा चिपरा छबड़ाये रहीथे। तुरते नहा-धोके निकलथे तभो ले एक कनक न एक कनक नाक म ठेठा बोजायेच रहीथे। जब देखबे तब एकर -ओकर चारी- चुगली करते रहीथे। पेट म दांत रहीके घलो एकोठिन बात ल नइ पचो सकय। अंगरी करे, अंगुठा देखाय म गोल्ड मेडलिस्ट हावय। हमार अधक्छ ह एमे, ओमे, बीएड, इडिएट सबो हावय। तभो ले fहंदी म ढंगलगहा लिखे-बोले नइ सकय। छत्तीसगढ़ी म गोठियाए बर लाज मरथे। ए परकार ले वोह चारो कोती ले कचरा साहितकार हावय। कबीर ह खिचरी भाखा म लिखय त हमर अधक्छ ह कचरा भाखा के पर-योग करथे। खिचरी कहां नानमुन बांगा-बंगुनिया म चुरथे अउ कचरा कहां घुरूवा म पचथे। खिचरी ह माली कटोरी थारी म परोसाथे त कचरा ल झॅउहा-डलिया म भरके घुरूवा म समरपन करे जाथे। ये परकार से हर दिरीस्टिकोन से कचरा के इस्थान ह खिचरी ले बड़े हवे। ए हमर गुनहगरा अधक्छ के सोंच हरे।

पाछू साल संसथा के वारसिक समेलन होइस। जेमा संसथा के इसमारका निकलिस हे। इसमारिका बर घलो अभीन सही रचना आमंतरित करे गए रहीस हवय। वो इसमारिका म कतको झिन रचनाकार मन जबरन अपन जगहा बनाय हावय। कतको झिन अपन बढ़िया चीन पहिचान के घटिया परभाव से नीच दबाव बनाके अपन इस्तरहीन रचना ल छपवाइन हवे। आजकाल रचना ह घलो संबंध बनाय के मुताबिक साहित म जगहा बनाय बर सीख गे हावय। ए ह हमार साहित के सोनहा जुग हरे।

इस्मारिका म कतको बने -बने रचनाकार के सुघ्घर रचना में से बने -बने अंग ल भंग कर के छापे गे हावय। जेन ह अधक्छ के उच्च इरखाहा, परभावसील जलनखोर, मंदबुधि परबुधिया बुधजीवी अति नीच होय के उच्च परमान देथे। भेजे गए कतको सुघ्घर रचना ल छापबे नइ करिस, दबा -चपक के बइठ गे। अवइया समे म अधक्छ के रचना संगरह परकासित होवइया हवय। ठोस नही त चिबरी सही फेर अनमान हे के उही दबाए -चपके रचना मनले दू-चार ठन ह अधक्छ के सुवरचित रचना म बदल सकत हवय। पल पल म परकीरति ह रंग बदलथे त सियाही के रंग बदले म अंचभो नहीं होना चाही। पीछूच समेलन म इसमारिका के संगे-संग अधक्छ के चुटकुला संगरह के विमोचन होइस हवय। विमोचन ल होय साल भर होगे हवय फेर संगरह ह अभीन तक छप के नइ आये हवय।

हमर किताब ‘बेसरम के फूल’ म सामिल होय खातिर तुमन अपन दूठन फोटू अउ गीत, कबिता, चुटकुला, कहिनी कुछू होवय भेजव। मातरा 151 रूपिया परति पिरिस्ठ के हिसाब से सहयोग सुलुक राखे हवन। जेह तुॅहर मन बर भले अति होही फेर हमर मन बर अति अउ अति कमती, अति कीमती, अति आवसियक अउ उचित हवय।

हमन ल पूरा अकीन हवय के ‘बेसरम के फूल’ किताब के सफलता खातिर तुंमन अपन कलम के जादूगिरी देखाहू। ददागिरी, भाईगिरी अउ चमचागिरी म चमचागिरी ल पहिली पराथमिकता दिये जाही। ‘बेसरम के फूल’ के भारी-भर-कम कमिया (बी) ल देखाय बर हमार गोड़ म गोड़ बांध के हमार संग तिटंगी दउंड़-दउंडहू अइसे आसरा करत हवन। रचना के चयेन परकासन म अधक्छ के मुखिया भूमका रहिही। सुरता राखिहौ तुंहर सहयोगे म हमार सफलता हवय। धन पानी के अकाल म बेसरम के फूल हॅ अधबीच्चे म मुरझा सकत हे। तेखर जुवाबदार सिरिफ अउ सिरिफ तुही मन होहू। हमर उपर लांछन झन लगाहू।

‘बेसरम के फूल’ म सामिल होवइया जम्मो रचनाकार मन के संसथा के तरफ ले रंगहीन (जेला तुम रंगीन समझ सकथव )सन्मान पतरा अउ ‘बेसरम के फूल’ (किताब) धराके विमोचन समारो म विसेस रूप ले सन्मान ( भीतर ले हीनमान समझना तुॅहरे बर तुॅहर गरब के बात होही ) करे जाही। सन्मान पतरा अउ फोटू के खरचा सुवयम रचनाकार के होही।

रचना भेजइया नइ भेजइया पढ़इया नइ पढ़इया जम्मो के जय जउंहर होवय।

बियंगकार
धर्मेन्द्र निर्मल

7 replies on “बियंग : रचना आमंतरित हे”

गज्जब, बने ढकेले हस ग घुरवा मा अधक्छ ल, फ़ेर जम्मो के कहानी इही आए। बाँगा बंगुनिया ले घुरुवा बड़ेच होथे। 🙂

रचना ला पढ़के जम्मो भड़ास निकलगे ग निर्मल भइया तथाकथित सहित रखवार मन के लिगोट तक ला उतार देच फेर अइसन बेशरम मन मुस्कावत होहि घलो काबर कि बेशरम तो बेशरमेच रइही / अइसन सहित औ साहित्कार मन ला उपजाय बढ़ाय माँ सासन परशासन के संगे संग तथाकथित इस्थापित साहित्कार मन घलो जुम्मेदार हे फेर बारा उदिम कर के चाटुकारिता के निसैणि चढ़ के जे फुलगी माँ जाय के सोच थे टेन हा मुर भरसाच गिर थे

अलकरहा कठिन हे तुमनके भाखा ह. मैं हर अनपड छतीसगड़िया अँ. हन्दी हर तो पढ़ा दार थे. छतीसगड़ही म त एक घ पढ़े बर अव एक घ समझे बर लागथे.

निर्मल जी बधाई।जोरदरहा व्यंग लिखे हव।छल प्रपंच म बूड़े नकलची लफन्दी स्वयम्भु तथाकथित साहित्यकार मन ल छाटे निमारे के जरुरत हे।

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