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कविता

दुरिहा दुरिहा के घलो,मनखे मन जुरियाय अउ सार छंद – मकर सक्रांति

दुरिहा दुरिहा के घलो,मनखे मन जुरियाय

कोनो सँइकिल मा चढ़े,कोनो खाँसर फाँद।
कोनो रेंगत आत हे,झोला झूले खाँद।
मड़ई मा मन हा मिले,बढ़े मया अउ मीत।
जतके हल्ला होय जी,लगे ओतके गीत।
सब्बो रद्दा बाट मा,लाली कुधरिल छाय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

किलबिल किलबिल हे करत,गली खोर घर बाट।
मड़ई मनखे बर बने,दया मया के घाट।
संगी साथी किंजरे,धरके देखव हाथ।
पाछू मा लइका चले,दाई बाबू साथ।
मामी मामा मौसिया,पहिली ले हे आय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

ओरी ओरी बैठ के,पसरा सबो लगाय।
सस्ता मा झट लेव जी,कहिके बड़ चिल्लाय।
नान नान रस्ता हवे,सइमो सइमो होय।
नान्हे लइका जिद करे,चपकाये बड़ रोय।
खई खजानी खाय बर,लइका रेंध लगाय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

चना चाँट गरमे गरम,गरम जलेबी लेव।
बड़ा समोसा चाय हे,खोवा पेड़ा सेव।
भजिया बड़ ममहात हे,बेंचावय कुसियार।
घूमय तीज तिहार कस,होके सबो तियार।
फुग्गा मोटर कार हा,लइका ला रोवाय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

बहिनी मन सकलाय हे,टिकली फुँदरी तीर।
सोना चाँदी देख के, धरे जिया ना धीर।
जघा जघा बेंचात हे, ताजा ताजा साग।
बेंचइया चिल्लात हे,मन भावत हे राग।
खेल मदारी ढेलुवा,सबके मन ला भाय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

चँउकी बेलन बाहरी,कुकरी मछरी गार।
साज सजावट फूल हे,बइला के बाजार।
लगा हाथ मा मेंहदी,दबा बंगला पान।
ठंडा सरबत अउ बरफ,कपड़ा लगे दुकान।
कई किसम के फोटु हे, देखत बेर पहाय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।

जिया भरे झोला भरे,मड़ई मनभर घूम।
संगी साथी सब मिले,मचे रथे बड़ धूम।
दिखे कभू दू चार ठन,दुरगुन एको छोर।
मउहा पी कोनो लड़े,कतरे पाकिट चोर।
मजा उही हा मारही,मड़ई जेहर आय।
मोर गाँव दैहान मा,मड़ई गजब भराय।



सार छंद – मकर सक्रांति

सूरज जब धनु राशि छोड़ के,मकर राशि मा जाथे।
भारत भर के मनखे मन हा,तब सक्रांति मनाथे।

दिशा उत्तरायण सूरज के,ये दिन ले हो जाथे।
कथा कई ठन हे ये दिन के,वेद पुराण सुनाथे।
सुरुज देवता सुत शनि ले,मिले इही दिन जाये।
मकर राशि के स्वामी शनि हा,अब्बड़ खुशी मनाये।
कइथे ये दिन भीष्म पितामह,तन ला अपन तियागे।
इही बेर मा असुरन मनके, जम्मो दाँत खियागे।
जीत देवता मनके होइस,असुरन नाँव बुझागे।
बार बेर सब बढ़िया होगे,दुख के घड़ी भगागे।
सागर मा जा मिले रिहिस हे,ये दिन गंगा मैया।
तार अपन पुरखा भागीरथ,परे रिहिस हे पैया।
गंगा सागर मा तेखर बर ,मेला घलो भराथे।
भारत भर के मनखे मन हा,तब सक्रांति मनाथे।

उत्तर मा उतरायण खिचड़ी,दक्षिण पोंगल माने।
कहे लोहड़ी पश्चिम वाले,पूरब बीहू जाने।
बने घरो घर तिल के लाड़ू,खिचड़ी खीर कलेवा।
तिल अउ गुड़ के दान करे ले,पावय सुघ्घर मेवा।
मड़ई मेला घलो भराये,नाचा कूदा होवै।
मन मा जागे मया प्रीत हा,दुरगुन मन के सोवै।
बिहना बिहना नहा खोर के,सुरुज देव ला ध्यावै।
बंदन चंदन अर्पण करके,भाग अपन सँहिरावै।
रंग रंग के धर पतंग ला,मन भर सबो उड़ाये।
पूजा पाठ भजन कीर्तन हा,मन ला सबके भाये।
जोरा करथे जाड़ जाय के,मंद पवन मुस्काथे।
भारत भर के मनखे मन हा,तब सक्रांति मनाथे।

जीतेन्द्र वर्मा “खैरझिटिया”
बाल्को(कोरबा)
9981441795

रचनाकार नें जो अल्‍प विराम का प्रयोग किया है, उस पर ध्‍यान दें। अल्‍पविराम का गलत प्रयोग हुआ है या छत्‍तीसगढ़ी में अब अल्‍प विराम का ऐसा ही प्रयोग हो रहा है। इस पर विमर्श के उद्देश्‍य से हमने जैसी रचना रचनाकार नें हमें प्रेषित किया है, उसे ज्‍यों के त्‍यों प्रकाशित कर रहे हैं। – संपादक

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