कविता : जोंधरा

भुईया वाले रे होगे बसुन्दरा ।
परोसी झोलत हावय जोंधरा ।।
लोटा धर आईन मीठ-मीठ गोठियाईन
हमरे पीड़हा पानी हमरे ला खाईन
कर दीन पतरी मा भोंगरा ।
घर गय दुवार गय, गय रे खेती खार
हमन बनिहार होगेन, उन सेठ साहूकार
बांचीस नहीं रे हमर चेंदरा ।
सुते झन राहव रे अब त जागव
चलव संगी जुरमिल हक ला मांगव
खेदव रे तपत हॉंवय हुड़का बेंदरा ।

-राजकमल सिंह राजपूत
दर्री – थान खम्हरिया
मो. 9981311462

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4 Thoughts to “कविता : जोंधरा”

  1. MOOLCHAND NIRMAL

    MOLA AY KAVITA PAGAR KE BAHUT ACHHA LAGISH

  2. बहुत सुग्घर कविता हे जी। छत्तीस गढ़िहा मन के पीरा ल आप बने समझत हो

  3. ramesh kumar verma

    Jondhara torana au bendara Bhgana Hai.thank s

  4. सुनिल शर्मा

    राजकमल जी आप की अनुपम रचना छत्तीसगढ़ियो के आजपर्यंत तक हुए शोषण की पीड़ा कप दिखाती है…आज समाज को ऐसे ही जागृत करने वाले रचनाओ की आवशयकता है आपको गाड़ा गाड़ा बधाईया

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