छत्तीसगढ़ी हे हमर, भाखा अउ पहिचान ।
छोड़व जी हिन भावना, करलव गरब गुमान ।।
करलव गरब गुमान, राज भाषा होगे हे ।
देखव आंखी खोल, उठे के बेरा होगे हे ।।
अड़बड़ गुरतुर गोठ, मया के रद्दा ल गढ़ी ।
बोलव दिल ला खोल, अपन ये छत्तीसगढ़ी ।।
भाखा गुरतुर बोल तै, जेन सबो ल सुहाय ।
छत्तीसगढ़ी मन भरे, भाव बने फरिआय ।।
भाव बने फरिआय, लगय हित-मीत समागे ।
बगरावव संसार, गीत तै सुघ्घर गाके ।
झन गावव अष्लील, बेच के तै तो पागा ।
अपन मान सम्मान, ददा दाई ये भाखा ।।
आनी बानी गीत गा, बने रहय श्रृंगार ।
गढ़व षब्द के ओढ़ना, लोक-लाज सम्हार ।।
लोक-लाज सम्हार, परी कस सुघ्घर लागय ।
छत्तीसगढ़ी गीत, देष परदेष म छाजय ।।
गुरतुर लागय गीत, होय जस आमा चानी ।
दू अर्थी बोल, गढ़व मत आनी बानी ।।
रमेशकुमार सिंह चौहान
rkdevendra4@gmail.com
ब्लॉग : सुरता (http://rkdevendra.blogspot.in)
बढिया लिखे हावस ग , रमेश भाई । तीसरी कक्षा म गिरधर की कुण्डलियॉ पढे रहेंन तेकर सुरता आ गे । बहुत – बहुत बधाई ।
आदरणीया शर्मा दीदी आप ये रचना ला मान देंव, आप जइसे रचनाकार के आसीस पा के मंय धन्य होंगेंव, आप ला बहुत बहुत धन्यवाद
sughar haway bhaiya