भारत के उत्तर-परब क्षेत्र मं असम, मध्यभारत, दक्छिन भारत, अंडमान निकोबार- द्वीपसमूह अउ छत्तीसगढ़ मं जुन्ना समय ले गोदना, गोदवाए के चलन रहे हे, फेर छत्तीसगढ़ के गोदना ह पूरा दुनिया मं ”छत्तीसगढ़ के चिन्हारी” बनगे हावय। छत्तीसगढ़ मं अइसे तो सबो जात के मनखे-मन गोदना गोदवात रहिन, लेकिन सबले जादा आदिवासी भाई-बहिनी मन सबे कोनों गोदना गोदवात रहिन। अब तो गोदना ह नवा फेसन के चिन्हारी बनत जावथे।
गोदना ल केवल सुघ्घरता बर गोदवात रहिन, अइसे बात नइ रहिस, बल्कि सरीर बने मजबूत रहय, कोनो बेमारी झन होवय, ये बात ल मान के गोदना गोदवात रहिन, तभे तो ये हा पूरा दुनिया मं सुघ्घरता के संग एक्यूपंचर अउ एक्यूप्रेसर के रूप ले लेहे हावय। ये दूनों पध्दति के इलाज के मूल आधार गोदना आय।
हमला सुरता हे कि जुन्ना समय मं सबो जात के मनखे मन अपन हाथ मं- अपन नांव या भगवान के नांव चाहे ओर मूरत या फेर आनी-बानी के फूल के चिन्हारी के रूप मं गोदना ल गोदवात रहिन। कतको माइलोगन मन अपन आदमी के नांव ल अपन हाथ मं गोदवात रहिन, काबर के पति के नांव नइ लेवत रहिन। अइसनहे कतको- मनखे मन अपन सुवारी के नांव ल हाथ मं गोदवात रहिन। ओघनी लकवा, बात या संधिबात के बेमारी हो जाय, त बने होए बर गोदवात रहिन।
बस्तर के वरिष्ठ साहित्यकार- लाला जगदलपुरी जी बताए हे के, गोदना का होथे? गोदना ह लोक- संस्किरिति ले जुरे छत्तीसगढ़िया सिंगार आय, एला सरीर के चमड़ी मं गोदे जाथे। गोदना के मायने होथे- गडियाना या चुभाना। नील या कोइला के पानी मं सूजी ल डुबोके सरीर के चमड़ी मं आनी-बानी ले चिन्हारी करके या गोद के बनाए सरूप ल गोदना कहे जाथे।
छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग मं आजो सबले जादा गोदना गोदवाए जाथे, उंहा के महतारी अपन बेटी ल गोदना गोदवावत कइथे, के बाहरी-गहना चोरी हो जाथे लेकिन गोदना के सिंगार ल कोनों चोरी नइ करे सकय। ये बात ल अउ अपन बेटी ल समझाथे के गोदना गोदवात जेन पीरा ल सह लेथे ओ ला जिनगी भर के सबो पीरा, दुख अउ झंझट सहे के आदत बन जाथे। गोदना ह जिनगी मं सबो समस्या ले जुझे बर रद्दा बनाथे। बस्तर मं दू विधि ले गोदना गोदवाए जाथे-
पहली विधि- सरीर के जेन भाग मं गोदना गोदवाए जाथे ओमा एक नमूना रूप बना लेथें, फेर खाना बनाए के बरतन के तरी कोती के केरवंच ल ओ जघा मं लेप करे जाथे, एकर बाद भेलवा के तेल मं सूजी ल डूबो-डूबो के चमड़ी मं चुभाए जाथे, भेजवा के रस ल कतकोन जरी-बुटी मं पकाके गोदना गोदे जाथे।
दूसरइया विधि मं सरीर के चमड़ी मं जाड़ा के तेल ल लेपे जाथे, जिहां गोदना होथे। एकर बाद काजर (काजल) में सूजी ल डूबो-डूबो के चमड़ी मं चुभो के गोदना गोदे जाथे। कांकेर जिला के गोदना आकरिति मसहूर हे, जेमा मांछी (मक्छी) बहांचघा (बांह चढ़ा), सूता (हंसली), बिच्छी (बिच्छू) पइरी (पायल) अड़बड़ बनाए जाथे। भुजा मं बांह0चघा, अंगठा मं बिच्छी, कोहनी मं मांछी अउ छाती मं सूता आकरिति के गोदना गोदवाए जाथे।
मसहूर साहितकार सिरी रामअधीर जी कहे रहिन के- ”गोदना ह आदिवासी- नोनी मन के सुघ्घर चिन्हा आय।” सरला सिंह कहे हें- आदिवासी मन मं कहावत हे के जेन ह अपन गोत्र के गोदना गोदवाही ओकर पुरखा मन कठिन बेरा मं ओकर सहारा बनथें। स्व. नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव जी लिखें हें के गोदना- प्रथा के पाछू म एतिहासिक तथ्य छुपे हे। बिलासपुर के वरिष्ठ पत्रकार प्रान चड्डा जी लिखे हें के गोदना ह आदिवासी मन के चिन्हारी आय, लेकिन येहा एक्यूपंचर के जुन्ना इलाज पध्दति आय। केदारनाथ सिंह गोदना ल आदिवासी मनके सुघ्घर रस्म बताए हें।
गोदना ह अब संसार मं फेसन के सरूप ले लेहे हावय लेकिन ए बात सच हे के गोदना ह सरीर के सुघ्घरता के संग सुघ्घर-इलाज पध्दति घलाव बन गए हे।
श्यामनारायण साहू (स्याम)
बिलासपुर