मंझनिया के घाम ह अब जनाए ले धर लिए हे। एकरे संग अवइया बेरा के लकलकावत घाम के सुरता संग हरर-हरर के अवई-जवई अउ झांझ-बड़ोरा के गुर्रई के सुरता मन म समाए बर धर लिए हे। फेर संग म करसी-मरकी के जुड़ पानी अउ गोंदली संग बोरे-बासी के सेवाद घलोक मुंह म जनाए बर धर लिए हे। तेकरे सेती तांडव करत गरमी संग जूझे के हिम्मत बंधे रहिथे नइते सरकार अउ समाज के मुखिया मन के मारे तो कोनो मौसम के मार ल सहे के शक्ति न देंह म राहय, न मन म।
तइहा के बात अलग रिहीसे जब इहां कटकट ले जंगल-झाड़ी राहय, जगा-जगा डोंगरी पहार अउ नदिया-नरवा संग कुंवा-बावली म लबलब ले पानी भरे राहय। एकरे सेती गरमी ह कतकों अतलंग करय फेर धरती दाई जुड़े बोलय। भरे मंझनिया पटाव वाला घर ल बने लीप-पोत के भुइयां म जठना जठा के घोनडइया मार के सूत ले। बिन पंखा धूंके देंह के एको कोर ले तो पछीना चुचुवा जातीस! फेर अब, जब विज्ञान के चमत्कार के नांव म ए.सी., कूलर, पंखा-संखा सब उतरगे हे तभो ले मंझनिया के बेरा ह कुकुर बरोबर जीभ लमा के लाहकत-लाहकत लट्टे-पट्टे बुलकथे।
आखिर अइसन होवत काबर हे? अउ जब मौसम के माध्यम ले प्राकृतिक तकलीफ ह दिनों-दिन बाढ़त जावत हे, त फेर हमन जेन विकास के बात करथन, सुख अउ समृद्धि के बात करथन वो हर कइसन गढऩ के होथे? का सिरिफ पइसा के ढेरी गांज लिए ले सुख के जम्मो जिनसी सकला जाथे? अउ नहीं त फेर सिरिफ बाहरी देखवा वाले चटक-मटक जिनीस ल ही विकास अउ समृद्धि के मापदण्ड काबर माने जाथे । ये बात सही हे के शिक्षा के क्षेत्र म बढ़ोतरी ले लोगन के सोच, उंकर जीए के तरीका, रोग-राई ले बांचे के बेरा बाढग़े हवय। फेर जिहां तक प्राकृतिक सुख अउ समृद्धि के बात रिहीसे त वोहर तो रोज के रोज कमतियावत जावत हे।
जेन वैज्ञानिक मन के विकास अउ तकनीकी ज्ञान के चरचा करत हमन अपन आपला गौरवान्वित मानत रहिथन, आज उहीच मन चिल्ला-चिल्ला के ये काहत हें के भू-जल स्तर रोज के रोज कमतियावत हे, खनिज खनन के नांव म डोंगरी-पहार के रोज हत्या करे जावत हे, जंगल के क्षेत्रफल ह हर साल कई किमी के पुरती कमतियावत जावत हे। अउ जब ये सब होवत हे, त धरती तो तीपबेच करही, बादर ले आगी तो बरसबेच करही, हवा म जहर तो घुरबेच करही। जे मन आर्थिक आंकड़ा ल विकास के मापदण्ड मानथें, वोकर मन ले मोर प्रश्न हे- औद्योगिक प्रदूषण के सेती जब हवा म आक्सीजन के मात्रा कम हो जाही त उन सांस कोन कोती ले लेहीं, भू-जल स्तर के संगे-संग वर्षा के पानी जब हमर पहुंच ले दुरिहा जाही त पिये अउ अन्न उपजा के जीये खातिर पानी के व्यवस्था कोन कोती ले होही? जब अन्न अउ जल नइ रहही, सांस ले बर शुद्ध हवा नइ रइही तब मनखे कोन विकास के खांधा ल धरके जिही? तथाकथित समृद्धि ह हमला कोन किसम ले जियाही?
ये बात ल महूं मानथौं के आज जेन चारों मुड़ा ले प्रकृति के निवाश होवत हे वोमा सरकार के जिम्मेदार पद म बइठे लोगन के बहुत बड़े हाथ हे। फेर ए बात ल घलोक मैं मानथौं के सरकारी मनखे मन के संगे-संग ये बेंदरा-बिनास म हमारो मनके हाथ हे। आज हमरे मनके खेती-खार, बारी-बखरी म रूख-राई के का दशा हे? हमर अपन के तीर-तखार के नाली-ढोंडग़ा अउ तरिया-नंदिया के का दुरदशा हे। आखिर हम अपन दोष ल सरकार के मुड़ म खपल के अपन जिम्मेदारी अउ अपन गलती ल कइसे तोप-ढांक सकथन, अपन कर्तव्य ले कइसे बोचक सकथन? गरमी के ये जउंहर अहसास हमला अपन कर्तव्य खातिर घलोक ललकारत हे, अउ जब तक हम अपन जम्मो कर्तव्य खातिर समरपित नइ होबो, संगे-संग अपन जम्मो जिये के संसाधन के संरक्षण अउ संवर्धन नइ करबोन तब तक गरमी ह तांडव करही, हमर घर-दुवार, बारी-बखरी, लइका-पिचका, संगी-जउंरिहा सबो खातिर रार मचाही।
सुशील भोले
सहायक संपादक – इतवारी अखबार
41191, डॉ. बघेल गली
संजय नगर, टिकरापारा, रायपुर