एक समय रहिस हे जब हर पढ़इया अपन गुरू के सम्मान करंय। रद्दा म रेंगत गुरूजी ह हर राहगीर सम्मान के नजर ले देखय। गांव के इसकूल म जब नवा गुरूजी जाथे। त गांव के खाली घर ओखर बर जोहथे। किराया के बात रहिबे नइ करय। गांव के हर मनखे ओला सहयोग देथे, ओखर सम्मान करथे। जुन्ना समय म गुरूकुल राहय। जिंहा बडे-बडे राजा -महाराजा के लइका मन राहंय अउ अपन गुरू के सेवा करंय। धीरे-धीरे समय बदलत गिस। सम्मान के भावना कम होवत गिस आज तो स्थिति मारपीट तक पहुंच गे हावय। असंतोस भावना के परिनाम आय। आज हमर ससंकिरती ह सिक्छा के छेत्र म दिखबे नइ करय।
गुरू के पैर छूना ह हांथ तक पहुंच गे, अब हांथ मिलाथें। धीरे-धीरे ये हाथ ह शाल अऊ सिर तक ओखर बाद पीठ तक पहुंच गे हावय। अब कोनो भी सिक्छक लइका ल सुधारे बर या ओखर गल्ती बर डांट नइ सकय। आज डांटही त रात तक ओकर ठोक-पिटाई हो जाथे। अपन आप ल एक नायक साबित करेबर लइकामन कुछ भी कर सकथें।
संस्कार घर ले आथे। आज के मां-बाप घर म टीवी के आगू म बइठे-बइठे एक सिक्छक के चिट्ठा-पिट्ठा खेलत रहिथे ओला गारी देथे। तब लइका ह तो ओला सिखबे करही। दूसर कारन हे सिक्छक स्वयं। सिक्छक के व्यवहार हर लइका ले अगल-अलग रहिथे। नम्बर देय म सिक्छक भेदभाव कर थे। लइकामन ल समझना छोड़के समझाना चालू कर देथे। लइकामन के मन उही मेर ले असंतोस चालू हो जथे। ओखर रूप आज के सिक्छक छेत्र दिखाई देथे। सम्मान पाना हे त सम्मान देना जरूरी हे। यदि पूर्व छात्र जेन अब माता-पिता हे तेन मन रद्दा ले भटक गे हावय त हमन ल आज ऊंखर लइका ल सही रद्दा देखाय के जरूरत हे। वातावरन म सुधार के जरूरत हे एखरबर सब जिम्मेदार हें।
-सुधा वर्मा