रोज बिगड़ई म परिसान होके बिदही तीस हजार म मेटाडोर ल बेच दीस। घर म न चांउर रहीस न दार, उई पइसा ल सब उड़ात गिस। सब पइसा सिरागे त बिदही रोजी-रोटी कमाय जाय लगिस।’
समारू ल गांव के सब छोटे बड़े मन बढ़िया मान गौन करयं। समारू हर तको अपन ले बड़े के गोड़ छू के पांव परथे। समारू हर गांव म ककरो घर पर लर जाथे जिहा दंऊड़ के आ जाथे। अपने सब काम ल छोड़ के। ककरो घर चांउर-दार नई रहय त समारू हर चाउर-दार, लकड़ी-फाटा सब दे देथे। समारू ल कुछू चीज के चिंता नइए एके ठन चीज के जादा चिंता करय अपन बेटा के। जेन हर कुछु काम- धाम ल नई जानय। रात-दिन पइसा-कौड़ी ल पानी बरोबर उड़ात रहीथे तेकरे जादा चिंता रहय। एक दिन रात के समय रहीस। समारू हर अपन बेटा बिदही ल कइथे- कस बेटा तैं काम-धाम कुछु करत नइयस अउ पइसा ल रातदिन पानी बरोबर बोहावत हच त मैं कतेक ल पइसा तोर बर लाववं। कुछु काम-धाम तको नई करस। रातदिन धान चांउर ल बेच-बेच तोला पोसत हाववं। काबर तोर दाई तको नइए फेर तैं मोर एकलौता बेटा आच। ये सब गोठ ल सुनके बिदही हर अपन बाबू समारू ल कइथे बाबू तैं मोर बर एक ठन किराना दुकान खोल दे जेमा मैं रोज काम करवं। थोरकिन पइसा-कौड़ी कमा लवं। समारू हर दू-चार दिन म अपन बेटा बिदही बर किराना दुकान खोल दीस। बिदही हर रोज बिहनिया ले नहा के दुकान खोल डारय। दू महीना बढ़िया अपन काम करिस। तीन महीना नई होय पाय रिहिस। बिदही अपन बाबू समारू ल कइथे बाबू मोर बर एक ठन फटफटी बिसा दे। रोज साइकिल म समान लाय बर परथे अबड़ दूरिहा ले। काय करे बिचारा समारू अपन तरवा ल धर के बइठ जाथे अउ बिहान दिन अपन बेटा बर नवा फटफटी लाइस। अइसने करत-करत बिदही चार महीना नई करे पाय रहीस। अपन बाबू ल फेर कहीस बाबू मोर बर एक ठन टैक्सी ले दे मैं गांव-गांव जाके समान बेचहा। समारू हर अपन बेटा के गोठ ल सुनके उई मेरा गिर जाथे। हिचके बर धर लेथे बिदही हर अपन बाबू बर दंऊड़त पानी लाय जाथे। बिदही के आत ले बिचारा समारू के परान-पखेरू हर उड़ा जाथे। बिदही बाबू गो… बाबू गो… कही-कही के रोय बर धर लेथे। दस दिन के बाद समारू के नहावन-खावन हो जाथे। सब सगा मन अपन-अपन घर चल देथें। गांव के सियान मन एक दिन बिदही ल समझाथे। बिदही तैं बढ़िया कमा खा जी अब तोर कोनो नइए। खेत-खार ल झन बेच बिदही गांव वाला मन के आघू म हहो कइथे। बाद म कुछु कांही लेवई म सब खेत बेचा जाथे। एक ठन बाहरा हर बाच जाथे दू इक्कड़ के पूरता हर। रात कन सुते बेरा समारू हर मन म गुने लगिस एक ठन जीप, एक ठन मेटाडोर लेतेंव। रोज शहर म चलातेंव त जादा पइसा मिलही। दूसर दिन बिदही अपन खेत ल बेच दीस अऊ एक खटखटही मेटाडोर बिसा डारिस। दू-चार दिन बढ़िया चलिस तहां ले बिगड़े के चालू होगे। रोज बिगड़ई म परिसान होके बिदही तीस हजार म मेटाडोर ल बेच दीस। घर म न चाउंर रहीस न दार। उई पइसा ल सब उड़ात गिस सब पइसा सिरागे त बिदही रोजी-रोटी कमाय जाय लगिस। बिदही हर एक दिन बइठै रहीस। बर छाँव म त लइका मन कइथे देख राजू देख मन बोध मन के लाड़ू खाय ले एक दिन जन-धन के हानि होथे। तेकरे ले मैं काहत हांव। सब ल जइसना बनत हावय तइसना कमावव-खावव। आज मोला देखव काय रहेंव आज काय बनगेंव। पहली दुख करबे त एक दिन सुख मिलही अऊ सियान के बात अमृत होथे येला सब धरव।
श्यामू विश्वकर्मा
नयापारा डमरू
बलौदाबाजार
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One Thought to “मन के लाड़ू”
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बड सुघ्घ्र कहिनी लिखे श्यामू भाई, सिरतोन सियान मन के कहना अमरीत बरोबर होथे ह मन ला उंकर कहना मानना चाही अउ उंकर बताये रददा म रेंगना चाही मन के लाडू बांधे म कउनो फायदा नई हे यर्थाथ् म जीना चाही कहिनी बर धन्यवाद