घातेच दिन के बात आय। ओ जमाना म आजकाल कस टीवी, सिनेमा कस ताम-झाम नई रहिस। गांव के सियान मन ह गांव के बीच बइठ के आनी-बानी के कथा किस्सा सुनावयं। इही कहानी मन ल सुनके घर के ममादाई, ककादाई मन अपन- अपन नाती-पोता ल कहानी सुना-सुना के मनावयं। लइका मन घला रात-रात जाग के मजा ले के अऊ अऊ कहिके कहानी सुनयं।
ओही जमाना के बात ये जब मैं छै-सात बरस के रहे होहूं । हमन तीन भाई अऊ ममा के तीन झन लइका। ममादाई ले रोज सांझ होतीस तहां ले कहानी सुनाय बर पदोय लगतेन। ममादाई पहिली खा-पी लव फेर सुते के बेर कहानी सुनाहंू कहिके मनावय। हमन मामी ले जल्दी खाय बर दे कहिके चिल्लात रहेन। खातेन-पीतेन अऊ चुमुक ले खटिया म कथरी ओढ़ के बइठ जातेन अऊ ममादाई ल जल्दी आ कहिके गोहरातेन। ममादाई ल बरोबर खटिया-पिढिय़ा नई करन देत रहेन। तभो ले ममादाई अपन काम बूता ल करके खटिया म सूतत-सूतत कहानी सुनाय ल सुरु करय।
नवागढ़ के हाट-बजार म राजू अऊ ओखर संगी सत्तू दूनो झन लइका घूमत रहिन। आनी-बानी के समान बेचावत रहय। कोनो मेरा साग-भाजी बंगाला गोल-गोल, मुरई लंबा-लंबा रोठ रोठ, गोलईंदा भाटा…। कोनो मेरा नवा-नवा कपड़ा अऊ का-का। ऐखर ले ओमन ल का करे बर रहे। ओमन ल थोड़े साग भाजी लेना रहिस। ओमन तो घूमत मजा लेत रहिन। खई खजाना खोजत रहिन। ये पसरा ले ओ पसरा।
मिठई के दुकान म सजे रहय जलेबी गोल गोल, छडिय़ा मिठई सफेद-सफेद पेंसिल असन, बतासा फोटका असन। दूनो लइका के मन ललचाय लगीस। राजू मेरा एको पइसा नई रहय। ओ का करतिस देखत भर रहय। सत्तू धरे रहय चार आना फेर ओखर मन का होईस कांही नई लेईस। दूनो झन आगू बढग़ें। आगू म केंवटिन दाई मुर्रा, मुर्रा के लाडू अऊ गुलगुल भजिया धरे बईठे रहय। राजू कनेखी देखय पूरा देख पारहव त मुंह म पानी आ जाही। सत्तू ह गुड़ेर के देखय येला खांव के ओला। फेर सत्तू कुछु नई लेईस। चल यार घर जाबो कहिके वह हाट ले रेगे लगिस। दुनो छन पसरा छोड घर के रद्दा हो लिन। रद्दा म सत्तू के षैतानी मन म कुछु विचार आईस ओ हर राजू ले कहिस चल तै घर चल मै आवत हव । ओ हर ऐती ओती करत फेर बाजार म आगे । राजू ल कुछ नई सुझाीस का करव का नई करव फेर सोचिस चल बाजार कोती एक घांव अऊ घूम के आ जांव पाछू घर जाहू।
राजू धीरे-धीरे हाट म आगे। देख के ओखर आंखी मुंदागे। सत्तू ह कागज म सुघ्घर मुर्रा के लाड़ू धरे-धरे कुरूम-कुरूम खावत रहय। राजू के बालमन म विचार के ज्वार-भाटा उछले लगीस।
मोर संगी…ओखर पइसा…का करवं…।
टुकुर-टुकुर देखय अऊ सोचय। मुंह डहर ले लार चुचवात रहय। अब्बड़ धीरज धरे रहय फेर सहावत नई रहय। कोकड़ा जईसे मछरी ल देखत रहिथे ओइसने। ओइसनेच झपटा मारीस। मुर्रा के लाडू ल धरीस अऊ फुर्र…।
सत्तू कुछु समझे नई पाईस का होगे। हाथ म लाडू नई पाके रोय लगीस। भागत राजू के कुरता ल देख के चिन्ह डारिस। राजू लाड़ू लूट के भाग गे। सत्तू रोवत-रोवत आवत राहय। ओतकेच बेर ओखर ममा चैतराम ओती ले आवत रहिस। भांचा ल रोवत देख अकबका गे।
– का होगे भांचा? काबर रोवत हस।
– का होगे गा?
सत्तू सुसकत-सुसकत बताइस ओखर मुर्रा के लाड़ू
राजू ह…
धर के भगा गे…।
काबर गा?
सुसकत सुसकत सत्तू जम्मो बात ल बताईस।
-ओ हो भांचा तोरो गलती नईये। तोला अइसन नई करना रहिस। चल तोर बर अऊ मुर्रा के लाड़ू ले देथवं। सत्तू फेर कागज म सुघ्घर मुर्रा के लाड़ू धरे कुरूम-कुरूम खाये लगीस।
ओती बर राजू ह मुर्रा के लाड़ू धरे खुश होगे अऊ खाये बर मुंह म गुप ले डारिस। जइसने मुंह म लाड़ू के गुड़ ह जनाईस ओला अपन दाई के बात के सुरता आगे:-
-बेटा हमन गरीब आन। हमर ईमान ह सबले बड़े पूंजी आय। हमला अपन मेहनत के ही खाना चाही। दूसर के सोन कस चीज ल घला धुर्रा कस समझना चाही।
राजू के मुंह म लाड़ू धरायेच रहीगे न वो खा सकत रहिस न उगले सकत रहिस। मुंह ह कहत हे, हमला का जी खाये ले मतलब, स्वाद ले मतलब। बुद्धि कहत है, नहीं दाई बने कहिथे। दूसर के चीज ला ओखर दे बिना नई खाना चाही। मन अऊ बुद्धि म उठा-पटक होय लगीस। मन जीततीस त लाड़ू कुरूम ले बाजय। बुद्धि जीततीस चुप साधय। अइसने चलत रहिस लाड़ू अधियागे।
बुद्धि मारीस पलटी अऊ मन ल दबोच लेहीस। मुंह ले मुर्रा लाड़ू फेंकागे। राजू दृढ़ मन ले कसम खाय लगिस-”आज के बाद अइसना कभू नई करवं अपन कमई के ल खाहूं, दूसर के सोन कस जिनीस ल धुर्रा माटी कस मानहूं, मंै अब्बड़ पढि़हवं अऊ बड़का साहेब बनिहवं।ÓÓ
सत्तू ल मुर्रा के लाड़ू ल वापिस करे बर ठान के राजू ह हाट के रद्दा म आगे। सत्तू सुघ्घर ममा के दे लाड़ू ल खात रहय। राजू अपन दूनो हाथ ल माफी मांगे के मुद्रा म सत्तू कोती लमा देइस। अब तक सत्तू ल घला कपटी स्वभाव के भान होगे रहिस। वो हर हंस के राजू के हाथ ले मुर्रा के लाड़ू ले के बने मया लगा के एक ठन मुर्रा के लाड़ू राजू के मुंह म डारिस। दुनो संगी अब हंस-हंस के संगे-संग मुर्रा के लाड़ू खाय लगीन कुरूम-कुरूम।
कहानी सिरावत-सिरावत ममादाई ऊंघावत रहय। मंै पूछ परेवं फेर राजू के का होइस? दूनो झन बने रहिन नहीं। ममादाई कहिस बेटा, ‘मन के जीते जीत हे, मन के हारे हार।Ó जौन मन बुद्धि ले सख्त होहीं तेन सफल होबे करही। राजू आज कलेक्टर साहेब हे। तहुंमन मन लगा के सुघ्घर पढ़ह।ू चलो अभी सुत जावव।
महूं राजू कस बनीहव सोचत-सोचत कतका बेरा नींद परिस। बिहनिया होईस नई जानेव।
-रमेश कुमार सिंह चौहान
मिश्रापारा, नवागढ.
जिला-बेमेतरा (छग)
अड़बड़ सुग्घर अउ सिक्षा प्रद कहिनी हे भाई मजा आगे…बधाई हो………
मुर्रा के लाड़ू काहनी ल पढ़के बचपना के याद आगे |
बड़ सुघ्घर लागिस जी एकर बर आप ला बधाई |
आप संगी मन ला ये कहिनी बने लगीस , जान के बने लगीस, आप मन ला धन्यवाद