शिक्षक कोन? ये प्रश्न करे ले उत्तर आथे कि जउन मन के मलिनता ल दूर कर के भीतरी म गियान के परकास फइलाथे अउ अंतस के भाव निरमल करथे, सत के रद्दा बताथे, उही शिक्षक आय। कबीरदासजी कहिथे- ‘गुरु कुम्हार सिस कुंभ है, गढ़-गढ़ काडे ख़ोट।’ अर्थात् जउन शिष्य के अवगुन ल कुम्हार के भांति दूर कर के ओला सत गुन ले जुक्त बना दे। सत्यम्, शिवम् अउ सुन्दरम् के भाव बोध करा दे उही सद्गुरु आय। शास्त्र पुरान म गुरु के गजब महिमा गाये गे हे। फेर उही गुरु हर लोक म परसिध्दि पाय हे जउन हर लोक के संगे-संग लोक के गियान के प्रतिति कराए हे।
शिक्षा ल दू भाग म बांटे गे हे- पहिली औपचारिक शिक्षा अउ दूसर अनौपचारिक शिक्षा। अनौपचारिक शिक्षा ही लोक-शिक्षा हरे। औपचारिक शिक्षा एक निस्चित इस्थान म, नियत करे गे मनखे के दुवारा, नियत बिसयबस्तु के संग होथे। जबकि अनौपचारिक शिक्षा हर जगा बिबिध रूप म दिखथे। लोक-शिक्षा म ओ तत्व होथे जउन मनखे ल इंसान बनाए के ताकत रखथे। ओकर अंतस के भाव ल जगाथे अउ समाज के संग समरस जीये के रद्दा दिखाथे। औपचारिक शिक्षा हर मनखे ल रोजी-रोटी दे सकथे। आज के भौतिक सुख-सुविधा दे सकथे, लेकिन आत्मिक बिकास अउ आत्मसंतोस बर लोक-शिक्षा के आवस्कता परथे।
लोक-शिक्षा हमेसा हमर आस-पास होथे केवल ओला देखे बर आंखी के आवस्कता होथे। जउन मनखे हर लोक-शिक्षा ल सही ढंग ले जान पाईस ओहर आज महात्मा बनगे। दत्तात्रयजी महाराज हर उही आस-पास के गियान ल देख के अपन अंतरभाव ल जगाइस अउ महात्मा बनगे। ओहर कोनो संत-महात्मा ल अपन गुरु के रूप म नइ देख के अपन आस-पास के जीव-जंतु अउ मनखे ल, ऊंकर अंतस के गियान, भक्ति अउ श्रध्दा ल अपन गुरु के रूप म देखिन। लोक-शिक्षा हर एक रूप अनुभव जनित गियान आय। जउन ल हम समाज म देखथन, अपन आस-पास के छोटे-बड़े मनखे मन के काम करे के ढंग ल देखथन, अनुीाव करथन अउ ओकरे ले सीखथन। उही गियान हर लोक-शिक्षा आय। लोक-शिक्षा के क्षेत्र असीमित हे। ओला कोनो परिभाषा म नई बांधे जा सके। सही कहे जाय त मन के अंतर-चेतना हर ही सही गियान आय। आज थोरिक पढ़े-लिखे मनखे मन किताबी बिसयबस्तु ल गियान मान लेथे अउ अपन आप ल गियानी समझथे, जबकि गियानी ओ हरे जउन हर सब के भीतर म एक समान तत्व ल देखथे। जेकर अंतस म सुख, समरिध्द अउ संतोस के भाव होथे।
लोक के शिक्षक हर आत्म गियानी होथे। उंकर पास जउन गियान होथे ओहर आत्म-सिरजित होथे। अपन अनुभव अउ चिंतन ले उपजाय होथे। संत गुरुघासीदास के गियान हर अइसने अनुभव जनित अउ आत्म-सिरजित गियान रहिस। ओहर कोनो मदरसा म जाके गियान नइ पाय रहिस। ओकर करा जउन भी गियान रहिस ओला ओहर लोक म बियाप्त तत्व ले अनुभव कर के पाय रहिस। ओहर अपन आस-पास के परिदृस्य ल बिस्लेसित कर के आत्मचिंतन ले नवा गियान उपजाईस। लोक-गियान के सिरजन करिस। ओहर जउन गियान के रचना करिस ओकर पाछू म लोक-कल्यान के भावना रहिस। दलित-सोसित समाज जउन अपन जीवन बर संघर्स करत रहिस, जिंकर स्वयं के कोनो पहिचान नइ रहिस उनला अपन गियान के माध्यम ले आत्मबल दिस अउ ‘स्व’ के पहिचान कराईस। अज्ञानता के अंधियारी ले निकरे बर उनला प्रेरित करिस।
संत गुरु घासीदासजी के जनम ओ समे म होईस जब छत्तीसगढ़ का, समूचा देस के सामाजिक, आर्थिक अउ राजनीतिक स्थिति हर चउपट रहिस। धर्मान्धता हर अकास छूवत रहिस। जातिगत बेवस्था के कारन लोगन के भावना हर कुंठित रहिस। दलित समाज ल हेय के भावना ले देखे जात रहिस। सामाजिक मान्यता हर मूल्यहीन हो गे रहिस। छुआछूत के भावना परबल रहिस। स्थिति ये रहिस के दलित समाज के संग अमानवीय बेवहार करे जात रहिस। समाज के ये दूरदसा हर गुरु घासीदास ल आत्मचिंतन बर बिबस करिस अउ ओहर उही आत्म-चिंतन ले निकरे गियान ले लोक-मुक्ति के रद्दा बनिस। यही नवा गियान हर गुरुजी ल महात्मा के रूप म महत्ता दिस।
संत गुरु घासीदासजी के शिक्षा हर लोक-चेतना के बिकास के परिपेक्ष म रहिस। सवर्ण मन के आतंक ले मुक्ति पाय के रहिस अउ आत्मबल ल विकास कर के आत्म-सम्मान ल बचाय के रहिस। सामाजिक चेतना के जउन संदर्भ गुरुजी हर खोजिस ओकर आधार उंकर आसपास म फैले बिसंगति ले रहिस। अउ ओकरे परिनामस्वरूप गुरुजी हर सात दिब्य गियान अउ 42 अमृतबानी के उद्भव करिस। ये सातों उपदेस के बिस्लेसन करे ले ओमे आसपास के पीरा अउ मुक्ति के मारग दिखथे। संगे-संग आत्म बिकास के भाव तको दिखथे।
पहिली उपदेस- ‘सतनाम ल मानो, सत्य ही ईस्वर हे अउ ईस्वर ही सत्य।’ ये उपदेस म गंभीर आध्यात्मिक चेतना हे। सत्य अउ ईस्वर ल एक बता के ओहर सत के मारग म रेंगे के शिक्षा दिस। सही म सत्य हर मोक्ष के मारग आय। यदि ये संसार कुछ सही हे त सत ही हे, सत के छोड़ कुछू नइ हे। इही पाय के लोक म कहे जाथे- ‘सत बरोबर तप नहीं अउ झूठ बरोबर पाप।’ संस्कृति म एक सुग्घर सुक्ति हे- ‘सत्यं ब्रुयात, प्रियं ब्रुयात।’ जउन सत्य के निकट हे, ओहर ईस्वर के निकट हे इही पाय के सतनाम के प्रचारक मन पंथी गीत गाथें-
सतनाम-सतनाम-सतनाम के आधार
गुरु के महिमा अपार, अमरित धार बोहाई के
हो जाही बेड़ा पार, सत गुरु महिमा बताई दे।
सत के मारग हर बहुत कठिन आय फेर येहर मोक्ष के दुवार तको आय। सत ल ईस्वर माने के भाव म ईस्वर के निराकार रूप के दरसन होथे। गुरु घासीदास मूर्ति पूजा के विरोध करिस। उंकर दूसर उपदेस रहिस- ‘मूर्ति पूजा मत करव, एकर ले जड़ता आथे।’ सही म मूर्ति पूजा हर ओइसनेच आय जइसे- ‘मन म मइल हे अउ गंगा नहाये जाय।’ मूर्ति पूजा ल एक आडंबर बता गुरुजी ईस्वर के प्रति मूल आस्था जगाय के कोसिस करिस। ईस्वर हर तो सर्वत्र हे येला हम केवल मंदिर म झन खोजन, बल्कि अपन अंतस म झांक के देखन त सही म ईस्वर के दरसन कर पाबोन। येला कबीरदासजी हर ये तरह ले कहिथे-
कस्तुरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे जग माहि।
ऐसे घट-घट राम हे, दुनिया देखे नाहि॥
गुरु घासीदास हर यथार्थ ल लोक के आगू म रखिस अउ आध्यात्म के बोध करइस अउ कहिस- ‘मंदिर म का करे ल जइबोन, अपन मन के देव ल मनिइबोनल।’
ईस्वर ल पाय के सब के अलग-अलग मारग हे। संत मन अपन अनुभव के आधार गियान देथे। सबो के लक्ष होथे- आत्मतत्व ल पाना। जगजीत सिंहजी हर एक सुग्घर ंगाल गाथे-
मस्जिद जाए मौलवी, पंछी गाए गीत।
सब की पूजा एक है, अलग-अलग है रीत।
संत गुरु घासीदास हर घलो ईस्वर ल पाय के मारग ल अपन ढंग ले देखिन अउ लोक ल येकर अनुभूति कराइन। गुरुजी हर लोक म बहुत अकन विसंगति देखिन अउ ओ बिसंगति ल आत्म-बिकास बर बाधक मानिन। आत्म-बिकास के पहिली सीढ़ी आय- ‘आचरन के शुध्दता।’ गुरुजी हर अपन उपदेस म कहिस- ‘पर नारी ल माता मानो, आचरन ल शुध्द रखव।’ ये उपदेस हर नारी मन के सनमान के भाव आय। गुरुजी हर अपन समे म नारी के व्यथा ल देखिस होही जब उन ला समाज म नारी मन के दसा हर सोचनी लागिस होही तब ओमन हर नारी सनमान के बात कहिस होही। आदिकाल ले नारी के दसा हर समाज म चिंताजनक रहे हे। नारी सोसन हर समाज के हर चिंतनशील मनखे ल सोचे बर बिबस करथे। उपेक्षित अउ अधिकारबिहीन नारी हर आजो अपन अधिकार के रक्षा बर छटपटावत हे। नारी ल माता माने के बात हर मनखे ल सुद्ध चरित्र के ऊंचाई म पहुंचा देथे। ये बात ल उही मनखे हर कही सकथे जेकर अंतस भाव साफ हे अउ समरस हे।
गुरुजी के उपदेस हर केवल धार्मिक नइ हो के सामाजिक चेतना ले जुड़े रहिस। उंकर उपदेस- ‘सबो जीव समान हे, जीव हत्या पाप हे। पशु बलि अंधबिस्वास हे।’ म एक मजबूत सामाजिक सोच जुड़े हावे। जीव ल आत्मभाव म देखना जिहां मानवीय संवेदना आय, उहेंं पशुबलि के बिरोध समाज म फैले अंधबिस्वास ले मुक्ति पाय के संदेस रहिस। ‘दोपहर म हल मत जोतो।’ ये सोच म प्राणिमात्र के प्रति कोमल भावना तको दिखथे। एक संवेदनसील, निर्भीक अउ आध्यात्मिक चेतना से युक्त मनखे हर ही अइसन बात कही सकथे। जब ये तरह के बात संत गुरु घासीदास हर कहिथे तब ओमे संत कबीर के तरह निर्भीक रूप म समाज म फैले अंधबिस्वास तोड़े बर एक आत्मबिस्वासी महान व्यक्तित्व के दर्सन होथे। बहुत अकन बात म संत गुरु घासीदास अउ संत कबीरदास बैचारिक रूप म आसपास दिखथे।
उंकर उपदेस- ‘चोरी करना पाप हे, हिंसा करना पाप हे, सादा जीवन उच्च बिचार रखना।’ अउ ‘मांसाहार मत करव, धूम्रपान निसेध हे।’ म जबर सामाजिक बिकास के मारग दिखथे। मूलरूप म कहे जाय तब जउन बात के तरफ गुरुजी हर इसारा करे हें ओहर हर एक तरह ले सामाजिक बुराई आय। येकर करे ले मनखे हर नीचे गिरथे। आत्म उत्थान बर अपन इन अवगुन ल तियागे ल परही तभे मनखे के सही बिकास हो सकही। ‘आध्यात्मिक उन्नति, सामाजिक उन्नति अउ वैयक्तिक उन्नति’ सबो बर मनखे ल मन के लोभ अउ हिंसा ल तियागे के जरूरत हे। तभे ओकर कल्यान होही अउ ओला समाज म सनमान मिलही।
इन सातों उपदेस के संगे-संग संत बाबा गुरु घासीदास के अमरित बानी म घलो लोक-गियान के दरसन होथे। जब ओमन ये कहिथे कि ‘मया के बंधना हर असली आय, दाई-ददा अउ गुरु ल सनमान देवव, बैरी संग घलो पिरित रखव।’ तब ओहर सचमुच लोक के शिक्षक लागथे। उंकर अमरित बानी म गजब के आत्म-चेतना के भाव हे। आत्म-बिकास बर आत्म सनमान के भाव होना जरूरी हे। ते पाये के ओहर कहिथे- ‘अपन ल हिनहा अउ कमजोर झन मानहू।’
संत गुरुघासीदास के शिक्षा आजो प्रासंगिक हे। उंकर गियान ल आज के लौकिक शिक्षा अउ औपचारिक दूनो म समोय के आवस्कता हे। छत्तीसगढ़ के परिपेक्ष म उंकर कोनो गियान हर बिरथा नइ हे। बाबा गुरुघासीदास हर समाज म समरसता लाये बर जउन नवा सिध्दांत गढ़िस ओ हर सबो छत्तीसगढ़िया मन के अंतस भाव म दिखथे। उही पाये के आजो छत्तीसगढ़िया मन म दया, परेम, छमा के भाव हर छलछलावत दिखथे।
बलदाऊ राम साहू
शंकर नगर रायपुर