कबरा कुकुर ला फूल माला पहिर के माथ म गुलाल के टीका लगाय अंटियावत रेंगत देखिस तब झबरा कुकुर ह अचरज में पड़गे। सन्न खा के पटवा म दतगे। ओहा गजब बेर ले सोचिस, ये कबरा ह बइहागे हे तइसे लागथे। नंदिया बइला अस मनमाने सम्हर के कोन जनी कहाँ जावत हे। अभी तो न कहूँ ठउर म कुकुर सम्मेलन होवत हे अउ न कुकुर मेला भरात हे। तीरथ-बरथ जाय के तो सवालेच नइ उठय। हमर पुरखा मन तो पहिली ले चेताय हे कुकुर ह गंगा जाही तब पतरी ला कोन चांटही। आज ले हमर समाज म कोन्हों कुकुर ह अइसन फूल माला नइ पहिरे हे तब ये भकला ला काय होगे भगवान जउन अइसन भेश धरे हे। कहूँ बाबा-वाबा बन जही तब तो होगे हमर समाज के कल्याण। हमर समाज के माथा म कलंक लगा दिही बिया ह। ये पगला गेहे कि मोरे दिमाग खराब होगे ददा। जउन मोर आँखी म दिखत हे तउन सिरतोन आय कि मोर आँखी म मोतियाबिंद के बीमारी होगे हे। मोतियाबिंद होगे होही तब भले चष्मा बिसा के पहन लेहूँ। मर जहूँ फेर ऑपरेषन कराय बर कोन्हों अस्पताल में नइ जावंव। कोन्हों अंखफोड़वा डॉक्टर के सपेटा मे पड़ जहूँ ते मरे बिहान हो जही ददा।
झबरा कुकुर गुनतेच हे अउ कबरा कुकुर तीर में पहुँच के जय-जोहार करिस। झबरा के धियान भंग होइस तब ओहा फेर बने मिलखी मार के आँखी ला रमंजत कबरा कुकुर ला बटेर के देखिस अउ पूछिस-‘‘ तै अइसना बाना धरके कहाँ जावत हस मोर ददा। अपन समाज के मान मरयादा के हिसाब ले पहिरे-ओढ़े ला लागथे मोर भाई। घेंच म फूल-माला, माथ म गुलाल, ये सब काय तमाषा आय जी। कुकुर अस कुकुर बरोबर रहे कर।‘‘
कबरा किहिस-‘‘काय गलती होगे कका। येमन ला मैहा अपन मन के थोड़े पहिरे हवं। आज मोर सन्मान होइस तब ये सबला पहिराय हे भई।‘‘
झबरा किहिस-‘‘ अन्ते-तन्ते झन गोठिया बाबू, तोर दिमाग ह चल गेहे तइसे लागथे। कोन्हों डॉक्टर नहीं ते बइद मेरन जाके अपन इलाज-पानी करवा। इहाँ तो आदमी मन अपन सम्मान कराय बर बतरकीरी असन झपाय पड़त हे। पइसा दे दे के अपन सम्मान करावत हे। उखर मन के रहत ले काखर पइसा अतेक अकता गेहे कि तोर सम्मान करही? आज ले हमर समाज में काखरो सम्मान नइ होहे तब तोरे कइसे हो जही? हम पतियाबे नइ करन जी। रंग-रंग के गोठिया के कुलबोरूक झन बन, सुधर जा समझे?
कबरा किहिस-‘‘ईमान से कहत हवं कका। तोर असन सियान मेर लबारी मारहूँ गा। आज इसकुल में गुरूजी ह मोर सिरतोन में सम्मान करिस हे। इही मेर खड़े-खड़े कतेक ला बताहूँ। तोर सुने के मन होही ते चल वही पीपरी पेड़ के छइहां म बइठ के तोला सबो किस्सा ल बताहूँ तभेच तैहा समझबे।
झबरा ह कबरा ला गुर्री-गुर्री देखिस, एक-दू बेर भूंकिस अउ कबरा के पाछू-पाछू रेंगत पीपरी पेड़ के छइहां मेर जा के बइठगे।
कबरा किहिस-‘‘तैहा तो जानत हस जब ले इसकूल म मघ्यान्ह भोजन षुरू होय हे तब ले मैं कान फूंका के, कंठी-माला पहिर के मांस खाय बर छोड़ दे हवं अउ खुदे अपन डयूटी ला इसकूल में लगा दे हवं। इस्कूल खुलथे तहनं उहाँ पहुँच जाथव अउ मध्यान्ह भोजन के बनत ले कोन्हों कोन्टा में नींद भांजत रथवं। जब पढ़इया लइका मन खा लेथे अउ जूठा-काठा ल फेंकथे उही ला मैंहा जमा के झड़कथवं। अतेक दिन होगे हे फेर आज ले न तो कोन्हों लइका ला हबके हवं। न राषन-पानी ला जूठारे हवं अउ न कोन्हों गुरूजी ला देख के भूंकेव हवं। गुरूजी मन के दषा ल देखके मोला गजब षोग लागथे कका। उखर मन ऊपर तो जिही आथे तिही भूंकथे। जउन ह दू और तीन ला घला केल्कुलेटर में जोड़थे तेमन गुरूजी ला उन्नीस के पहाड़ा पूछथे। गया बाई ला गाय बाई लिखथे तउन ह उखर हाजिरी लेथे अउ इस्कूल के जांच करथे। लइका मन चाहे कतको उधम मचाय अब गुरूजी मन ला राम भजे के अधिकार घला नइहे। कालीच के बात आय, एक झन लइका ह अडबड़ दिल ले इस्कूल आबे नइ करत रिहिस। रोज दिन बपरा बड़े गुरूजी ओखर घर में जाके किलौली करे तब वोहा लटपट में काली अइस अउ बड़े गुरूजी ला धमकावत किहिस, कान खोल के सुन ले मास्टर आज आगेवं त आगेवं अब नइ आवं, तोर गरज पड़े हे ते मोर घर में आके दू-चार घंटा पढ़ा दे कर, तोरो मन ह माढ जही अउ महू ला इस्कूल आय के झंझट ले मुक्ति मिल जही, समझगेस? लइका के गोठ ला सुनके बड़े गुरूजी सुकुरदुम होगे, कट खाय रहिगे बपरा ह फेर राम नइ भजिस। अब ओला बड़े गुरूजी कहत ते छोटे गुरूजी, एके झन तो हे बिचारा ह, ऊपरहा म रंग-बिरंग के काम-बुता। जिही आथे तिही धमकाथे भर, समस्या के सुधार करे बर कोन्हो नइ सोचे।‘‘
एक दिन बड़े गुरूजी ह मोर मेरन आके किहिस-‘‘एक झन तिही हाबस रे कबरा, तोरे मेरन मैहा अपन दुख-पीरा ला गोठिया सकत हवं अउ कोन्हों दूसर मेरन गोठियाथवं तब तो उही मन मोला अलाल अउ कोढ़िहा समझथे अउ अनुषासनात्मक कार्यवाही करे के धमकी देथे। इहां दिन भर बइठ के तिही मोर काम-बुता ला देखत रथस फेर बिन मुंहू के जीव अस, कहां मोर काम के साखी गवाही दे सकबे। एक झन तिही भर अस जउन ह आज ले मोर उपर भूंके नइ हस, कोन्हो लोग लइका ला डराय-चमकाय नइ हस। तोर ईमानदरी अउ वफादारी ला देख के मोला गजब खुषी लागथे। तोर अनुमति होतिस ते तोर सम्मान करे के मन हे रे कबरा। मैंहा अपन मुड़ी ला डोला के हव कहेंव तब मोर सम्मान करे गे हे कका, समझेस।
कबरा के गोठ ला सुनके झबरा ह खलखला के हाँसिस। हाँसत-हाँसत ओकर पेट फूलगे। वोहा किहिस-‘‘अच्छा गप मारथस रे कबरा। कोन्हो उपई लइका ह तोला माला पहिरा दे होही अउ गुलाल लगा दे होही तब तेहा मनगढ़त कहानी बना के मोला बिल्होरत हस बे।‘‘
कबरा ह ईमान से, बापकिन, गऊकिन कहि-कहि के झबरा ला समझाइस फेर ओहा कबरा के बात ला पतियाबे नइ करिस।
वीरेन्द्र ‘सरल‘
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