अंग्रेजी के दबदबे के बीच छत्तीसगढ़ी की जगह

क्या आपने कभी किसी दुकान प्रतिष्ठान का नाम छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखा पाया है? व्यवसाय क्षेत्र में कहीं भी चले जाइए आप एक भी छत्तीसगढ़ी नाम पा जाएं तो यह कोलम्बस की अमरीका खोज जैसा पुरुषार्थ होगा। दुकानों प्रतिष्ठानों के अंग्रेजी नाम ही लोगों को लुभाते हैं। चाहे वह प्रतिष्ठान का मालिक हो या ग्राहक, अंग्रेजी नाम ही लोगों की जुबान पर चढ़े हैं। कस्बों देहातों में ये नाम देवनागरी लिपि में मिलेंगे। थोड़ा बड़े शहर में चले जाइए वहां तो आप देवनागरी लिपि में भी नाम देखने को तरस जाएंगे। सारे नाम अंग्रेजी और रोमन लिपि में ही मिलेंगे। विजिटिंग कार्ड तो देवनागरी लिपि में छपने का श्रीगणेश ही नहीं हुआ होगा। ऐसे में छत्तीसगढ़ी भाषा कहां पर है यह देखना काफी दिलचस्प होगा।भले बोलने वाले बोलते समय यह ध्यान नहीं रखते कि उनके बोलने में किन-किन भाषाओं के शब्द शामिल हैं पर बोलने वाले ही यह अहसास कराते हैं कि छत्तीसगढ़ी बोली जा रही है क्योंकि छत्तीसगढ़ी न तो लिखने का चलन है न बोलने का और न ही छापने का। लेकिन अंग्रेजी का दबदबा ऐसा है कि लिखने, पढ़ने, बोलने, सीखने और छपवाने के मामले में यह पूरे प्रदेश की पहली प्राथमिकता है। गांव-गांव तक में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का कुकुरमुत्ते की तरह उगने का यही कारण है।
ऐसे में छत्तीसगढ़ी भाषा की जगह और उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न एक गंभीर बहस की मांग करता है। क्या इसकी प्रतिष्ठा साहित्यकारों और कलाकारों के माध्यम से संभव है जो छत्तीसगढ़ी का सहारा केवल अपने नाम के लिए ले रहे हैं। क्या इसकी प्रतिष्ठा महाविद्यालयों और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने से संभव है जो देखा जाए तो सालों पहले से शामिल है। क्या राजनेताओं के तुष्टिकरण के चलते संभव है जो हर छोटी-बड़ी बैठकों और आम सभाओं में छत्तीसगढ़ी बोलने का नाटक करना नहीं भूलते। चुनाव प्रचार तो पूरी तरह छत्तीसगढ़ीमय होता ही है। इनमें से कोई भी छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठा के लिए गंभीर नहीं है। छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठा तभी संभव है जब इसे स्कूलों में अनिवार्य कर दिया जाए। और यह भी तभी संभव होगा जब राजनैतिक इच्छाशक्ति होगी। महाराष्ट्र के उदाहरण से बहुतों को ऐतराज हो सकता है जहां भाषायी आधार पर राजनैतिक पार्टी सत्ता में है। पर भाषा की प्रतिष्ठा के लिए भाषायी आधार पर राजनैतिक पार्टी का होना ही एकमात्र विकल्प है। इसके बिना किसी भाषा की प्रतिष्ठा संभव नहीं है। दक्षिण के अधिकांश राज्यों में भाषायी आधार के कारण पार्टियां सत्ता में है। अनेक राज्यों और शहरों के नाम भी भाषायी आधार पर बदले गए हैं। तमिलनाडु, ओडिसा, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु, तिरुअनंतपुरम आदि नाम मिसाल के तौर पर गिनाए जा सकते हैं।
इसीलिए जब तक राजनैतिक पार्टियां भाषा को मुद्दा नहीं बनातीं भाषा की प्रतिष्ठा संभव नहीं है। छत्तीसगढ़ी के मामले में इस विचार का नितांत अभाव है। कहने को तो यहां भी छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच, छत्तीसगढ़ विकास पार्टी, छत्तीसगढ़ी समाज पार्टी, छत्तीसगढ़ शिवसेना जैसी राजनैतिक पार्टियां अपने नाम के साथ छत्तीसगढ़ को चस्पा किए हुए है पर इनका छत्तीसगढ़ी भाषा की प्रतिष्ठा से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि इन पार्टियों के मामूली कार्यकर्ता तक के बच्चे कान्वेन्ट स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करते हैं और बड़े नेताओं के बच्चे तो विदेशों में। यही नहीं शिक्षक, साहित्यकार, कलाकार और बड़े किसान तक अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूलों में दाखिला कराकर अपने को धन्य मानते हैं। ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ी की जगह की कल्पना सहज ही की जा सकती है।

दिनेश चौहान
(छत्तीसगढ़ी ठिहा, नवापारा- राजिम, मो. 9826778806)

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