मेकराजाला अउ फेसबुकिया, जम्मो संगवारी मन ल जय -जोहर, राम -राम …। संगवारी हो हमर छत्तीसगढ़ तीज तिहार के राज हे, बारहो महीना कुछु न कुछु तिहार आथे। हमर सियान मन बड़ गुनी, दूरदर्शी ज्ञानी रहिन। धरती मैय्या, बहु -बेटी, सियान, नोनी- बाबू, झाड़-झडऊखा, प्रकृति के जम्मो जिनिस के महत्व ल परख ले रहिन। मनुस के स्वभाव ल घलो पढ़ डले रहिन। घर-परिवार में खुशियाली बने रहए, धरती मैय्या हरियर रहए। उंखर गोठ बात, सभ्यता-संस्कृति अवइया पीढ़ी मन तक पहुँचत रहय। तेखर बर तीज तिहार सुरु करिन, किस्सा-कहनी के माध्यम ले बड़ सुघ्घर-सुघ्घर संदेस दीनहे।
हमर माँ ह तीज तिहार मन ल बड़ सुघ्घर नियम ले मनाय अउ हमन ल कहानी सुनाय। अगहन में अगहन-बृहस्पतवार के लक्ष्मी मैय्या के विधि -विधान ले पूजा करय। कहानी सुनाय। पहली गुरुवार के एक कहानी, दुसरैय्या के दू, तीसर में तीन चौथईया के चार, पांचवा में पांच, जिद करन तो अउ उपराहा घलो सुना देवय। माँ के बताय कहानी मन ल बताय के कोशिश करत हव। आप मन ल जरूर पसंद आही।
सुनव अगहन महीना के कहानी –
एक गाँव में ठाकुर-ठकुराइन रहिन। बड़ दयालु। भगवान के कृपा ले घर, में धन -धान्य भरपूर रहिस। लक्ष्मी माँ के बड़ कृपा रहीस। ठाकुर-ठकुराइन मन घलो दान-पून करे में, जरूरतमंद के मदद करे में आघू रहय। हर महीना नियम से सोन के आवरा बना के ठाकुर-ठकुराइन दान करय। ठाकुर-ठकुराइन के सात झन बेटा-बहु रहिन। सुख से घर चलत रहीस हे। ठाकुर-ठकुराइन के दान ल देख के बहु मन खुसुर फुसर करे। एक दिन सबले बड़े बहु से रहे नई गिस, ठाकुर-ठकुराइन ल कह दीस। अतेक दान करहु तो घर के सबे सोन सिरा जही। बहु के बात ल सुन के ठाकुर-ठकुराइन दुखी होइन, फेर सोचिन ठीके कहत हे। अब ले चाँदी के आवरा दान करबो। चाँदी के आवरा दान करे लगीन।
थोर कुन समय बाद दूसरीया बहु टोक दिस। रात दिन चाँदी के दान करहु तो घर के सबे चाँदी सिरा जही। फेर दुखी होइन, चाँदी ल छोड़ के कांसा के आवरा दान करे लगीन। तो तीसर बहु टोक दिस। कांसा ल छोड़ के पीतल के दान करे लगीन तो चौथइया टोक दिस, तो तांबा के करिन, पाचव्या टोक दिस, लोहा के करिन तो छ्ठवैया ह टोक दिस। हार खाके माटी के आवरा बना बना के दान करिन। एक दिन सबले छोटकी कहिस रात-दिन माटी के आवरा दुहू तो सरी घर कुरिया फूट जही। छोटकी के बात ल सुन के दूनो झन अड़बड़ दुखी होइन। रतिया ठाकुर-ठकुराइन सुनता सलाह होइन, अब घर रेहे के लाइक नई हे, चल कोनो दूसर गांव जाबो। असअन सोच विचार कर मुंधराहा उठ दुनो प्राणी घर ले निकल गीन।
वर्षा ठाकुर