कोनो भी चीज के जब अति होथे त ओह फुट जाथे। कर्मकांड, पाखंड के अति ह, जनम दिस सत ल। येला बगराय बर, सतबर जागरिति लाय बर कबीर ह अलख जगइस। उही कड़ी म निर्गुण ब्रह्म के सुग्घर ममहाती हवा के झोंका अइस। ये हवा ल पठोवत रहिन गुरु घासीदास सत्यनाम या फेर सतनाम के रद्दा। ये सब जाति के मनखे समागे। कहिथे न, पानी बरसथे त नान-नान जगह-जगह के पानी के धार ह नदिया म समा जथे। इहू ह अइसने रहिस हे। हर जाति धरम के मनखे ऐला समावत गीस।
एखर विशाल रूप ल देख के कर्मकांडी मूर्ति उपासक मन ऐला अछूत के नाम दे दिन। 300-350 बछर ले ऐ मन अपन अपमान सहत सत के रद्दा म रेंगत हांवय। कई दिग्गज समाज सुधारक मन इंखर उध्दार करे के कोसिस करीन फेर आज भी इंखर मन के उध्दार नई होय हावय।
ये ह सोचे के बात आय के कोन काखर उध्दार करत हावय। शिक्छा के विकास, औद्योगिक क्रांति अउ नवा सोच ह ईंखर अछूत होय के बात ल कमती जरूर करीस। कर्म के उपासक मन ल ये बात सोचे बर परही के कोन काम बड़े हे, कोन काम छोटे हावय। आज जाति अउ कर्म बदल गे हावय। मनखे ह हर कर्म ले जुरे हावय। गोड क़े पनही जरूरी हे त कपड़ा घलो जरूरी हावय। कपड़ा हावय त बटन जरूरी हावय। चूंदी बाढ़त हावय त ओखर कटईया के जरूरत हावय। पेट म भूख हावय त खाना बनइया के जरूरत हावय। खाना बर साग-भाजी, चाऊर-दार होना। त एखर बर ओला उगाने वाला होना। सब एक दूसर ले जुरे हांवय। येमा छोटे-बड़े के बात कहां ले आगे, कब आगे, कइसे आगे ये सोचे के बात आय। इही कर्मभूमि ले निकल के अइस घासीदास जेन ह ऊंच-नीच, छोटे-बड़े के दीवार ल तोड़ दिस, सत के रद्दा दिखइन। ओखर बाद भी जेन दीवान बनीस तेन ह विकास के दऊर म टूट गे। सिक्छा के भार म दबगे।
आज हम सब ल इही रद्दा म जाय के जरूरत हे। जिहां बिना तामझाम के सांती के झंडा लहरावत हावय। ओखर नीचे म बइठ के दू घड़ी सांस लेय के जरूरत हावय।
सुधा वर्मा