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गोठ बात

उत्छाह के तिहार हरेली

Bhaskarbhumiकोन्हों भी राज आरुग चिन्हा वोकर संस्कृति होथे। संस्कृति अइसन गोठ आय जेमा लोककला अउ लोकपरब के गुण लुकाय रहिथे। छत्तीसगढ़िया मन अपन सांस्कृतिक गहना ल बड़ सिरजा के रखे हे। जेकर परमाण आज तक वोकर भोलापन अउ ठउका बेरा मं मनाय जाय तिहार मं बगरथे। सियान से लेके लइकामन परम्परा ल निभाय खातिर घेरी-बेरी अघुवाय रिथे। माइलोगन के भागीदारी तव घातेच रिथे। चाहे रोटी-पीठा बनाये म हो, सगा-सोदर के मानगौन मं, लोकगीत मं, नहीं तो लोक नाचा मं सब्बो जघा आघु रिथे। छत्तीसगढ़ी मं त्योहार ल तिहार कहे जाथे। तिहार अउ परब कोन्हो धरम के मिंझरा आनंद उच्छाह आय। जोन ह खेत के फसल ल देख के मगन होथे तब खुशी मं उच्छाह मनाय बर धर लेथे।

अइसने एक ठन तिहार आय जेला जब खेत मं धान के पउधा लगात रिथे संग मं बियासी के बुता आखिरी होत रहिथे। तब सावन के अमावस्या के दिन हरेली तिहार ल घातेच उच्छाह मंगल ले मनाथे। ये छत्तीसगढ़ के किसान मन के महत्वपूर्ण तिहार आय। इही दिन किसान मन हा खेती के बुता मं अवइया जम्मो औजार-नागर, बक्खर, रापा, कुदारी, बसुला, टंगिया, आरी, भवारी, चतवार, आरा-आरी ल धो-मांज के लाल मुरूम के ऊपर रखथे। ताहने दूध, दूधभात संग चीला रोटी चढ़ा के पूजा पाठ करथें। तब घर मं चूरे ठेठरी, बरा, सोहारी, भजिया, अरसा, कटवा, मूठिया रोटी न खूब खाथें। लोगन मन एक-दूसर ल खाय पिये बर बलाथे अउ एकता के परिचय देय जाथे। इही दिन बिहंचे बेरा ठेठवार ह गउठान मेर बइठ के अपन-अपन मालिक किसान ल दसमूल अउ बनगोंदली नाम के जड़ी ल सौंपथे बदला मं दार चाउर मिलथे। लोकमान्यता हे कि ये जड़ी ल खाय ले देह मं रोग राई नई नींग सकय। याने मनखे मन बिलकुल चंगा रिही। जड़ी ल जंगल ले भारी खोज बिन के लाने रिथे। रातभर हड़िया में रखके वोमा मउहा, केऊ-कांदा, डोटो कांदाल डार के पानी मं चुरोथे। एती बर गाय-गरू के मालिक ह गेंहू के पिसान ल सान के गोल के भीतरी मं नून ल गोंज देथे, ताहने खम्हार के पान मं बांध दे जाथे वोला अपन-अपन गाय, बइला, बछवा ल खवाथे ऐकर ले जानवर मन घातेच स्वस्थ रिथे अइसन लोक बिसवास हे।

राउत मन नहा-खोर के लीम डारा कर्रा अऊ भेलवा डारा ल घरो-घर खोर के कपाट मं खोंच देथे। इही मऊका मं बांस लकडी क़े गेड़ी खपाथे। जेमा चघ के लइका के संग जवनहा मन तक मजा उठाथे। कोन्हों-कोन्हों जघा गेड़ी नाचा के आयोजन तक होथे। हरेली के दिन ले सुरू गेड़ी के समापन तीजा तिहार के पाछु होंथे। गेड़ी के चलन सिरिफ बरसा रितु में ही रहिथे। पहिली बरसात के पानी मं गांव- मुहल्ला मन म भारी चिखला होय, येकर ले निजात पाय पर तिहार के बेरा मं गेड़ी बनाय के सोचे लागिस, ताहन मूरत रूप दे डारिस। ये जिनिस ले एक जघा ले दूसर जघा जाबे तक चिखला माटी नई होवय। अब हमर राज म तेजी ले विकास होवत हे। गली मन म सीरमेंट के रोड बनात हें। तब चिखला के नामे नई रहाय। लागथे ओकरे सेती अब गेड़ी नंदावत हे। जेन घर मं तीन-चार ठन गेड़ी खपाय उही सिरिफ पूजा करे बर एक ठन मुसकुल मं बनाय जाथे। सहिच मं हरेली तिहार मन मं उच्छाह आनंद अउएकता के भाव ल जगाथे। धरती दाई के सेवा बजइया किसान के तिहार ल जम्मोझन मना के खुशी ले झूम जथे।

संतोष कुमार सोनकर ‘मंडल’
चौबेबांधा (राजिम)

One reply on “उत्छाह के तिहार हरेली”

ओंकार प्रसाद वर्माsays:

अति सुंदर जानकारी देबर बहुत बहुत धन्यवाद

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