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कविता

कबिता : नवा तरक्की कब आवे हमर दुवारी

अरे गरीब के घपटे अंधियार
गांव ले कब तक जाबे,
जम्मो सुख ला चगल-चगल के
रूपिया तैं कब तक पगुराबे?
हमर जवानी के ताकत ला
बेकारी तैं कब तक खाबे?
ये सुराज के नवा तरक्की
हमर दुवारी कब तक आबे?
हमर कमाए खड़े फसल ल
गरकट्टा मन कब तक चरहीं?
कब रचबो अपनों कोठार म
सुख-सुविधा के सुग्घर खरही?
कब हमरो किस्मत के अंगना
सुख के सावन घलो मा कब तक
उप्पर ले खाल्हे मा कब तक
नवा सुरूज ह घलो उतरही?
हमर भुखमरी एहवाती हे
हमर गरीबी हे लइकोरी।
जिनगी के रद्दा मा ठाढ़े
दु:ख, पीरा मन ओरी-ओरी
देख हमर दु:ख पीरा कोनो
बड़का-बड़का बात बघारै।
कागज के डोंगा म कोनो
बाढ़ पूरा पार उतारै।
नानुक कुर्सी, थोरिक पइसा
अपरिध्दा के अक्कल मारै।
सूपा हर बोलय तो बोलय
चलनी तक मन टेस बघारै।
चितकबरा हे दीन दयालू
संकट मोचन हे मतलबिया
ऊप्पर ले दगदग ले दीखै
अउ भितरी ले बिरबिट करिया।
झूठ-मूठ तो सच्ची लागै
सही बात हर लगय लबारी।
दुनिया म बहिरूपिया मन के
अड़बड़ कुसकिल हवै चिन्हारी।
दुखिया के आंसू सकेल के
दुखीराम काला गोहरावै?
वोट, नोट के जादूगर तो
किसम-किसम के खेल देखावै।
हमर पसीना भाग बनाही
जब ले चलही हमरो जांगर।
हमर खेत म सोन उगाही
हमरे बइला हमरे नांगर
अपन-अपन किस्मत बदले बर
चलौ सुकालू, चलौ समारू
मिहनत के संग आज बदे बर
गंगा जल अउ गंगा बारू॥

रघुबीर अग्रवाल ‘पथिक’
शिक्षक नगर, दुर्ग