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कविता

कबिता : होरी के बजे नंगारा हे

होरी के फाग म चैतू शूंभय
फिरतू के बजे नंगारा हे।
भांग-मंद मा मंगलू नाचे-झपय
मंगतिन के मया भरे बियारा हे।
बुधू ह उड़ावय फुदकी-गुलाल
अंचरा तोपे बुधनी के गाल होगे लाल।
लईका-जुवान टोली म घूमय
गली-दुवारी म मस्ती छाए हे।
गोंदा-दशमत-परसा के सुग्घर खिले फूल
ऐसो के फागुन ह, नवा बिहिनिया लाए हे।

संदीप साहू ‘प्रणय’
68एफ, रिसाली सेक्टर
भिलाईनगर, जि. दुर्ग

2 replies on “कबिता : होरी के बजे नंगारा हे”

रंगों की चलाई है हमने पिचकारी
रहे ने कोई झोली खाली
हमने हर झोली रंगने की
आज है कसम खाली

होली की रंग भरी शुभकामनाएँ

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