करिया बादर ल आवत देख के,
जरत भुइंया हर सिलियागे।
गहिर करिया बादर ल लान के अकास मा छागे,
मझनिया कुन कूप अंधियार होवे ले सुरूज हर लुकागे,
मघना अस गरजत बादर हर सबो डहार छरियागे,
बिरहनी आंखी मा पिय के चिंता फिकर समागे।
करिया बादर…
गर्रा संग बादर बरस के जरत भुइंया के परान जुड़ागे,
सोंधी माटी के सुवास हर, खेत-खार म महमागे,
झरर-झरर पानी गिरिस, रूख राई हरियागे,
हरियर-हरियर खेत-खार मा नवा बिहान होगे।
करिया बादर…
दूरिया ले आवत बादर हर सबो ला सुख देथे
चिरैया हर डुबकी लगा के बरसत पानी मा पंख ला झटक थे।
त पानी हर अउ रद्रद् ले गिरथे
लइकामन ल बरसत पानी म भीजे के मजा होगे।
करिया बादर…
जेठ मा नव तपा हर आंगी अस देह ला जरत थे,
त असाढ़ के करिया बादर हर देह ला चंदन अस ठंडाथे,
बादर नई दिखे त मेचका-मेचकी के बिहाव ल करथे,
त सावन-भादो मा तरिया-नरवा लबालब होगे।
करिया बादर…
श्रीमती जय भारती चन्द्राकर
व्याख्याता
गरियाबंद
“आषाढ महीना आगे अब तो बादर पानी आही न !” सिरतोन बात ए जय भारती जी , अब तो बिजहा-भतहा के दिन आगे । बड सुघ्घर कविता लिखे हव आप मन , नीक लागिस हे ।