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कविता

किसानी अपन करथो

सुत उठ बडे बिहनिया
करम अपन करथो
भुइंया के लागा छुटे बर
म्हिनत मेहा करथो
खुन पसिना ले सिच के
धरती हरियर करथो
मे किसान अव संगी
किसानी अपन करथो
जग ला देथो खाए बर
मे घमण्ड चिटको नइ तो करो
नइ रहाव ऐसो अराम मे
महिनत करथो इमान ले
छल नइ हे मोर मे
नइ हे कपट




महिनत हाबे मोर धरम
भगवान नो हरो धरती के
मइनखे मे हा हरो
जानो मोर महिनत ला
बस अतनि दया करो
बासी पेज खा के जिनगी
अपन जि थो
किसान अव संगी
किसानी अपन करथो

RAVI KANDRA
रवि कन्‍द्रा

4 replies on “किसानी अपन करथो”

एकांत निषादsays:

बढ़ सुघ्घर कविता हे भाई

मस्त हे भाई का कविता लिखे हस जी

omesh vermasays:

Very Nice ravi bhi

omesh vermasays:

Very nice ravi bhi

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