कोंदा मनके भजन महोत्सव – गुड़ी के गोठ

अब बड़े-बड़े जलसा अउ सभा समारोह ले देवई संदेश ह अनभरोसी कस होवत जात हे, अउ एकर असल कारन हे अपात्र मनखे मनला वो आयोजन के अतिथि बना के वोकर मन के माध्यम ले संदेश देना। राजनीतिक मंच मन म तो एहर पहिली ले चले आवत हे, फेर अब एला साहित्यिक सांस्कृतिक मंच मन म घलोक देखे जावत हे। अभी छत्तीसगढ़ी साहित्य के नांव म एक बड़का समारोह होइस, एमा सबो चीज तो बने-बने लागीस, फेर छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य के कमी विषय खातिर जेन वक्ता मनला वोमा बोले खातिर बलाए गे रिहिसे वोकर नाव ल देखके मोला अचरज लागीस। अचरज ए सेती के वोमा नेवताय जम्मो वक्ता मन म एको झन के योगदान गद्य साहित्य लेखन म एको रत्‍ती के नइए। जे मन गद्य साहित्य के सिरजन म एको कनीक बुता नइ करय वो मन वोकर कमी, समस्या या संभावना खातिर का उपाय सुझा सकथे, वोकर पीरा अउ खुसी ल कइसे अनुभव कर सकथे, या फेर वोकर विकास के संभावना ल कइसे ढंग के जान-चिन्ह सकथे? ये प्रश्न सिरिफ गद्य साहित्य लेखन के आगू म नहीं भलुक जम्मो किसम के छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन के आगू म खड़ा हो जाथे। काबर ते अब जादातर अइसने देखब म आवत हे, जेमा वो विषय के भुक्तभोगी या वोमा रचे-बसे मनखे के बदला आने क्षेत्र के मनखे ल विषय विशेषज्ञ के रूप में प्रस्तुत करे जावत हे। 
एकरे सेती वो मंच ले आने वाला संदेश जिहां अनभरोसील होवत जात हे, उहें अइसन चरित्‍तर के सेती सही अउ योग्य मनखे मन के मन म कुंठा अउ उपेक्षा के भाव पनपत जावते हे, जेकर सेती उंकर लेखकीय सक्रियता म कमी देखे जावते हे, संगे-संग उंकर रचना-स्तर म घलोक पहिली जइसे बात देखब म नइ आवत हे। अइसन आयोजक मन या अइसन अतिथि बने के साध मरइया मन ला ये विरोधाभास अउ वोकर ले उपजत साहित्यिक पतन ऊपर चिटिक सोचना विचारना चाही। उन सिरतोन म कहूं छत्तीसगढ़ी भासा, साहित्य या संस्कृति के बढ़वार खातिर फिकर करथें, चिंतित रहिथें त वोकर रस्ता के ये सबसे बड़े रूकावट खातिर खुद माध्यम झन बनयं अउ हो सकय त सही मनखे ल चुनयं, अपन फोकट के पहुना बने के साध ल साहित्य अउ साहित्यकार ऊपर झन थोपयं। 
मोला सुरता हे छत्तीसगढ़ राज बने के पहिली जे मन कोनो भी किसम के छत्तीसगढ़ी या छत्तीसगढिय़ा आयोजन ले दूरी बना के राहयं, एकर नांव सुनके नाक-कान ल अइंठत राहय, हमर असन मनखे मनला हीनता, कुंठा अउ क्षेत्रीयता ले भरे संकुचित मनखे कहिके हांसय-ठठावंय, अपमानित करयं अब राज बने के बाद उही मन छत्तीसगढ़ी भाखा, साहित्य अउ संस्कृति के झंडा उठाने वाला होगे हावयं। अइसने मनखे मन अब हमर जइसन मनखे मन ल छत्तीसगढ़ी के बढ़वार खातिर अंजोर देखाए के कोसिस करत हवयं। मोर सलाह हे के ए मन हमन ल ‘‘करिया अंजोर’’ झन बांटय, नइते हमर थोक-थोक टिमटिमावत दीया ह घलोक एकरे मन कस ‘‘अरुग अंजोर’’ को बदला ‘‘करिया धुंगिया’’ बांटे ले धर लेही। काबर ते अइसन मन के सकलाए सम्मेलन ल ‘‘कोंदा मन के भजन महोत्सव’’ ही कहे जा सकथे, जेला न कोनो सुन सकय, न समझ सकय।
सुशील भोले
सहायक संपादक – इतवारी अखबार
41191, डॉ. बघेल गली
संजय नगर, टिकरापारा, रायपुर

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