गरजइया कभू बरसय नहीं

तइहा ले ये सुनत आए हवन के ‘गरजइया बादर कभू बरसय नहीं’। अब जब अइसनहा जिनिस ल रोजे अपन आंखी म देखत हवन, त लागथे के हमर पुरखा मन जेन गोठ ल कहि दिए हें, ते मन ओग्गर सोन कस टन्नक हे। ए बात अलग हे के वो मन अइसन हाना ला कोनो सेखिया मनखे के संदर्भ म कहि दिए रहे होहीं के ‘जेन टांय-टांय करथे, तेकर जांगर नइ चलय’ फेर ए बात ह अब बादर के घड़घड़-घड़घड़ गरजई अउ फुसफुसहा बरसई के रूप म घलोक दिखत हावय।
जब ले विज्ञान के जुग आए हे तब ले वैज्ञानिक मनला लोगन भगवान बरोबर माने ले धर लिए हें। उन जइसन कहि दिन तेला आंखी कान मूंद के पतिया लेथें। फेर अब धीरे-धीरे अइसनहो अंधविश्वास ह टूटे-फूटे ले धर लिए हे। मौसम विज्ञानी मन जे दिन पानी बरसही कहिथें, ते दिन खंचित बरसबेच नइ करय। अउ जे दिन लकलक ले घाम उही कहिथें ते दिन एकाद सरवर के पुरती बादर ह रितोइच देथे। बपरा मौसम विज्ञानी मन तरी-ऊपर ले लजा जथें। फेर काय करबे तभो ले तो उहीच मन ल लोगन मुड़ी म बइठारे रहिथें। एला लोगन अंधविश्वास अउ अंधश्रद्धा नइ काहयं। ए मन सिरिफ उहीच भर ल अंधविश्वास मानथें जे बात मनला हमर पुरखा मन तइहा ले काहत अउ मानत आए हें।
अरे भई आज जेन जिनीस ह गलत साबित होवत हे उहू ल अंधविश्वास माने जाना चाही, तभे तो तुम इंकर ‘सपना-जाल’ ले बाहिर निकलहू। अउ जब तक सपना ले उठहू नहीं, जागहू नहीं, तब तक कइसे जानहू के पानी ह वैज्ञानिक मन के भविष्यवाणी के सेती नहीं भलुक जंगल-झाड़ी के बिनाश होवत हे तेकर सेती नइ गिरय। रोज धनहा-डोली मनला उजार-उजार के रकसा बरोबर जेन फेक्टरी खड़ा करत जावत हें, वोकर जीवलेवा धुंगिया के सेती पानी नइ बरसत हे। फेर ये असली बात ल न सरकार तुमन ल बतावत हे, न तुम समझे के कोशिश करत हौ। भलुक सरकार तो लबरा वैज्ञानिक मनके माध्यम ले तुंहला रोज नवा सपना देखावत हे। वइसने जइसे अर्थशास्त्री मन के माध्यम ले बड़का सरकार ह महंगाई ल रोके-छेंके के देखाथे, वोला सिरवा के ‘राम राज’ स्थापित करे के देखाथे।
अरे भई ए जानना अउ समझना जरूरी हे के अब सरकार के मुंह देखे के दिन बुलकगे हवय। अब तो अपन खुद के जांगर अउ अक्कल के भरोसा जोंग जमाए के दिन आगे हवय। किसानी हमला करना हे, जिनगी हमला जीना हे, त फेर अपन उपजाऊ डोली-धनहा ल काबर उजारन, काबर दू पइसा के लालच म वोला बेच के धुंगिया उगलइया फेक्टरी ठढिय़ावन देवन? अइसने रूख-राई के बढ़वार खुद करन, जिहां-जिहां हेल्ला भुइयां मिलथे सबमा पेड़ लगा देवन, जगा-जगा कुआं-बावली, तरिया-डबरा बनावन अउ हो सकय त अपन तीर-तखार के नरवा-ढोंडग़ा ल रूंध-छेंक के वोमा पानी भरे के जुगाड़ जमावन। जब तक अइसन नइ होही तब तक न तो धरती हरियावय अउ जब तक धरती नइ हरियावय तब तक बने गतर के न पानी गिरय त तुंहर खेती ह सोनहा बाली उगलय। कहिथें न ‘पर भरोसा, तीन परोसा’ कभू नइ मिलय, ये सिरतोन बात आय।
सुशील भोले
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