जब कभू संस्कृति के बात होथे त लोगन सिरिफ नाचा-गम्मत, खेल-कूद या फेर जे मन ल सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत मंच आदि म प्रस्तुत करे जा सकथे, वोकरे मन के चरचा करथें। मोला लागथे के ए हर संस्कृति के मानक रूप नोहय। एला हम कला के अंतर्गत मान सकथन, फेर जिहां तक संस्कृति के बात आथे त एमा हम सिरिफ वो जिनीस ला शामिल कर सकथन जेला हम संस्कार या धर्म आधारित परब-तिहार के रूप म जीथन, मानथन अउ अपन अवइया पीढ़ी ल सौंपे खातिर संरक्षित राखे के उदिम करथन।
भाषा आन्दोलन के बेरा म संस्कृति के बात करना कोनो-कोनो ल उजबक गोठ कस लाग सकथे। फेर मैं जिहां तक समझथौं ते बिन संस्कृति के सिरिफ भाषा के बात करना मोला उजबक कस लागथे। काबर ते भाषा ह खुद संस्कृति के संवाहक होथे। एकरे सेती मैं पहिली संस्कृति के बात करथौं तेकर पाछू भाषा के। अउ अइसन सिरिफ मोला नहीं भलुक जम्मो भाषा के खेवनहार मनला करना चाही। काबर ते आज हमर संस्कृति ल भुलवारे के, भरमाये के षडयंत्र भारी पैमाना म चलते हे। अउ जाने-अंजाने हमूं मन ये षडयंत्र म शमिलहा हो जाथन। काबर ते हमला कला के रूप ल संस्कृति के रूप म बताए जाथे अउ संस्कृति ल धर्म के रूप म। जबकि ये जानना जरूरी हे के धर्म अउ संस्कृति एक दूसर के पूरक आय या ए कहिन के एक सिक्का के दू पहलू आय।
हमन जब छत्तीसगढ़ी संस्कृति के बात करथन त वो हर सिरिफ करमा, ददरिहा, भौंरा-बांटी, डंडा-पचरंगा या नाचा-गम्मत भर नइ होवय, भलुक एकर मतलब भोजली, जंवारा, गौरा, कमरछठ, तीजा-पोरा, हरेली आदि घलोक होथे। फेर दुख के बात हे के ए तीज-तिहार अउ परब मनला धर्म के दायरा म बांध के भाषा आन्दोलन ले अलग कर दिए जाथे।
मैं कई पइत अइसे काहत अउ लिखत रहिथौं के धर्म के नांव म हमर मन ऊपर अन्य प्रदेश के संस्कृति ल खपले के लगातार प्रयास चलत हे, जेकर सेती हमर मूल संस्कृति के उपेक्षा करे जाथे या फेर वोकर ऊपर कोनो आने किस्सा-कहिनी गढ़ के वोकर रूप ल बिगाड़ दिए जाथे। मैं हमेशा कहिथौं के हमन चातुर्मास के चार महीना म सूते रहने वाला देवता मन के संस्कृति ल नइ जीयन छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति निरंतर जागृत देवता मन के संस्कृति आय। फेर धर्म खास करके हिन्दुत्व के नांव म ए सब महत्वपूर्ण बात मन के अनदेखी कर के आने प्रदेश ले आए धार्मिक स्वरूप अउ ग्रंथ मन के प्रचार-प्रसार करे जाथे। दुख के बात ए हवय के जे मन भाषा आन्दोलन म मशाल धरे दिखथें उहू म के कतकों झन धरम अउ संस्कृति के नांव म अइसन गड़बड़ी करत रहिथें। अउ जब कहूं उनला हुदरबे-कोचकबे त इहां के मूल संस्कृति ल सिरिफ आदिवासी मन के संस्कृति बता के अपन आपला वोकर ले दूरिहा राखे के उदिम करथें। निश्चित रूप ले एक हर बदमासी आय। काबर ते आने प्रदेश ले आये मनखे मन अपन संग उहां ले लाने संस्कृति ल आज तक भुला नइ पाए हें, उल्टा वो बाहिर के संस्कृति ल धरम के नांव म इहां खपले के षडयंत्र करते हें।
अइसन दोगलई चाल वाले मनखे मन ला कोनो भी रूप म इहां के संस्कृति के संवाहक नइ माने जा सकय, संरक्षक अउ हितवा नइ माने जा सकय। अच्छा होही के ए सब अपन टेडग़ा चाल ल सोझियावयं। अपन आप ल आरूग छत्तीसगढिय़ा के चोला पहिरावयं।
सुशील भोले
4/-191, डॉ. बघेल गली
संजय नगर (टिकरापारा)
रायपुर- 492001
मो. 98269-92811