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व्यंग्य

गुरू जी अउ नाँग देवता के पीरा

आज बड़े मुंदरहा गुरू जी के नींद उचटगे। अलथी-कलथी देवत बिहिनिया होगे। जइसे कुकरा बासिस, गुरू जी हर रटपट उठ के तियार होय ल लगिस ”अइसे तो बड़े मुंदारहा ले गुरू जी हर कभू नई उठे सूरूज देव जब अगास में चढ़ जाथे तब इंकर बिहिनिया होथे?” अइसने सोंचत मास्टरिन हर ओला पूछ पारिस। ”आज का हो गे हे, बड़े बिहिनिया ले लकर-धकर तियार होवत हो?”
मास्टरिन के सवाल ल सुन के गुरू जी हर अकबका गे। ओहर कहिस- ”तोला नइ मालूम का, आज 5 सितंबर हे?”
”5 सितंबर हे त का होगे। कोनो आसमान टूट गे का?”
”अरे तैं बही हो गे हस। 5 सितंबर के मतलब शिक्षक दिवस हे। आज स्कूल म सनमान होही। ”
”त अइसने काहव न कि आज फूल-माल पहिरे के अड़बड़ साध लागत हे। ”
आस्टरिन के बात ल सुन के गुरू जी हर लजा गे। फेर कुछू नइ कहि सकिस। अपन तियारी म लग गे। कोन परानी ल सम्मान हर नइ भाय। मान पाय बर तो मनखे के जात हर अड़बड उदीम करथे। पहिली के जमाना म तो मनखे हर मान पाय बर जप-तप करय। आज के जमाना म तो कोनो काकरो टाँग खींच लेथे, भरे बजार म कपड़ा उतरा देंथे। सब मनखे अपनेच मान बढ़ाये बर कुछू भी करथें। गुरू जी होय के अतका तो फायदा हे कि साल मे एक बेर लइका मन सोरिया लेथे। कोनों गाँव म बने संस्कार रहिथे त ओ गाँव के मनखे मन तको पूछ-परख कर लेथे।
ये बस बात ल गुनत-गुनत जी हर तियार होगे। जउन भी अलवा-जलवा घर म मिलिस ओला खा के अपन स्कूल डहर निकल गे। मास्टरिन हर चाय ल टेबुल म रखे रहिस वहू ल पीये के सुरता नइ रहिस। दनदन-दनदन फटफटी म बईठ के चले लागिस। आज तो अइसे लागत हे जइसे ओकर फटफटी हर हवई जिहाज बन गे हे।
गुरू जी हर जइसे गाँव के सियार म पहुँचिस नाँग देंवता ले उरभेट्टा होगे। लकर-धकर म हुरहा बिरिक मार पारिस, त मुढ़ के भार गिर गे। झकास नील-इअिनोपाल लगे उँकर कुरता हर धुर्रागे। माड़ी-कोहनी हर थोर-थोर छोलागे। चेत करके उठिस त का देखथे नाँग देंवता हर बनियाय धुर्रागे। माड़ी-कोहनी हर थोर-थोर छोलागे। चेत करके उइिस त किा देखथे नाग देंवता हर बनियाय फन काड़े खड़े हे। ओला देख के ओकर साँस अटकेगे। डरावत-डरावत ओहर कहिस- ”मोला छिमा करबे नाँग देवता, हड़बड़ी म मैं तोला नइ देख पायेंव।”
”का बात हे महापरसाद आज तो गजब रपतार म जात रेहेंव।”
नाग देंवता ल मनखे कस बोलत सुन के गुरू जी अकबका गे अउ महापरसाद कहना तो ओला अचरज म डार दिस। फेर साँस ल थेम के कहिस- ”आज शिक्षक दिवस हरे नाग देंवता। बिहिनिया के स्कूल हे, स्कूल म कार्यक्रम हे, ते पाय के हड़बड़ी म जात रेहेंव।”
”अच्छा-अच्छा त आज तुंहर पूजा होही, लइका मन तुंहर सनमान करही?”
गुरू जी हर लजावत कहिस-”हव नाँग देंवता” नाँग देवता ल परेम से गोठियावत सुन के ओकर डर हर थेरिक दूरिहईस तब वोहर कहिस- ”नाँग देवता, मोला तुमन महापरसाद कइसे केहेव समझ नइ आईस? थोरकिन फोर के समझावव।”
”तैं हर बइहा हस। अतका ल नइ समझेस त तैं लइका मन ल का समझावत होबे? फेर तैं हर पूछ दे हस त सुन- ”साल में तोरो एक घाँव पूजा होथे, मोरो एक घाँव पूजा होथे। तोर पूजा 5 सितंबर के होथे, मोर सावन के पंचमी के होथे। तोला मिठाई खवाथे, मोला दूध पियाथे। साल भर टेटकककू, मंहगू, बइसाखू मन तोर अपमान करथें, मोला लउठी म पिठथें। जेकर कोनो ओकात नइ राहत तहू हर सिर म सवार रहिथे। त होयेन न महापरसाद”
नाँग देंवता के बात सुन के गुरू जी सुकुड़दूम होगे। ओकर मुँहू के पानी सुखागे। ओकर मन के भरम के भूत हर भगा गे। ऑंखी हर थोरकिन उघरे कस लागिस। चेत ले-बिचेत मनखे ल जब कोनो ह बात ल परखाथे तब समझ म आथे। ओइसनेच नाँग देंवता के गोठ ल सुन के गुरू जी चेथी के ऑंखी हर आगू आगे।
गुरू जी ल गुनत देख के नाँग देंवता हर कहिस- ”देख महापरसाद ये जमाना हर अड़बड़ सुवार्थी हे। अपन मतलब म कोनो ल नंगरा कर दिही, त कोनो ल सिंहासन म बईठा दिही। एक जमाना रहिस तब हमला वासुकी नाँग के वंशज काहय अउ प्रिथवी ले सरग तक हमर अड़बड़ मान करंय, प्रिथवी ल बोहे हे कहिके हमर पूजा करंय। ये मन पहिली तो हमला खोज-खोज के मारिस अब जब नंदावत हन त हमर बर ‘स्नेक पार्क’ बनावत हें। पहिली तुमन ल तो भगवान ले ऊँचा पदवी दे गे रहिस अब तुंहर पानी देवइया नइ हे। शिक्षक ले तुमन शिक्षाकर्मी होगेव। अइसने रहही त अवइया पीढ़ी के मन तुहूँ मन ल अजायब घर म खोजही।”
नाँग देंवता के बात सुन के गुरू जी के नारी जुड़ागे। ओ हर अपन फटफटी ल घरीस अउ उलटा पाँव घर डहर लहुट गे। रद्दा भर सोंचत रहिस- ”देवता मन के गुरू ब्रिहस्पती पहिली गुरू रहिस जेकर पूरा सरग म मान रहिस, जेला जगत गुरू कहे जासकत हे, फेर कौरव-पांड़व मन के गुरू द्रोनाचार्य अउ कृपाचार्य रहिस, भागवान राम के कूलगुरू वसिस्ट अउ विस्वामित्र जेकर खूब आदर रहिस जेकर ‘आडर’ ल भगवान के ददा दसरथ हर तको नइ टार सकिस। आचार्य चानक्य हर तो हमर सबले बड़े आदर्श आय, जउन हर नंद वंश के नाश कर दिस। फेर आज हमर सनमान तो राधाकृष्नन के नाम ले के करे जाथे, जउन हर अपन जनम दिन ल हम गुरू जी मन बर समर्पित कर दिन। हमन हर अईसे महान परंपरा के मनखे आन फेर आज हमर कोनों पूछन्हा नइ ये। ये ढंग ल देखथन पहली हमन गुरू: ब्रह्ा रहेंव, आचार्य रहेंव, गुरू रहेंव अब मैं शिक्षक ले शिक्षाकर्मी बनगेंव। धन भाग हमर आगू अउ का का हो जाही। आगू अइसनेच रहही त तो हमर नामो बुता जाही।” सोचत-सोचत गुरू जी हर घर म हबर गे। जइसे घर के मुहटी म गिस, मास्टरिन ले उरभेट्टा हो गे। मास्टरिन फेर पूछ पारिस- ”अभी तो खरतरिहा कस गे हो, कईसे लहुट के आ गेव? गुरू जी के मुंहू ले भागा नइ फूटिस। चुपले अपन कस मुंहू कर के अपन कुरिया म चल दिस।

बलदाऊ राम साहू
शंकर नगर रायपुर