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गुरू के महत्तम बर संत मन के कहना हे के यदि बरम्हा-बिस्नु-महेस ह ककरो ले घुस्सा होगे हे त ओकर ले ये दुनिया म एक-अकेल्ला गुरू ही हे जउन ह तिरदेव के घुस्सा ले बचा सकत हे, फेर यदि गुरू ककरो बर घुस्सा होगे त ये दुनियां म अइसन कोन्हों नइहे जउन ह गुरू के घुस्सा ले बचा सकय, तिरदेव मन घलो नइ बचा सकय| गुरू-पुन्नी के सुघ्घर पबरीत बेरा म आवव गुरू काला कहिथे अउ गुरू के परकार के होथे, ओकर बारे म सास्त्र-सम्मत बिचार करिन..
गुरू दू अक्छर ले मिल के बने हे, गु = अंधियार अउ रू = दूरिहा करईया, मतलब जेन ह ये मानुस तन ल माया के घटाघोप अंधियार ले निकाल के भगवत्-उजियार म लेग के बइठार देथे उही ल गुरू कहे जाथे|
सास्त्र म गुरू के तीन परकार बताय गेहे, १- प्रारंभिक गुरू, २- सद्गुरू, अउ ३- समरथ गुरू| प्रारंभिक गुरू वोला कहिथे जउन ह साधक ल संसार लेे हटा के परमारथ कोती झुका देथे,अउ हमेसा सत् करम म लगाय रहिथे, फेर मन ले मन ल उपदेस देबर ये ह नइ जानय, मंतर-जाप, जग्य-हवन, सांस खींचना-रोकना आदि करम-कांड म खुदे लगे रहिथे अउ साधक मन ल घलो लगाय रहिथे|
सद्गुरू वो हरे जउन ह उपासना के मरम ल जानथे अउ साधक मन ल उपासना कराथे, उपासना माने भगवान के तीर म बईठना या अपन ईस्ट म अपन मन ल लगा देना| संत मन सद्गुरू के घलो चार ठन भेद बताय हे, यथा-
गुरू है चार प्रकार के अपनें अपनें अंग|
गुरू पारस दीपक गुरू मलयागिरी गुरू भृंग||
मतलब, पहला सद्गुरू ह पारस जईसे होथे, पारस म एकठन गुन होथे, वोला लोहा ले छुवा दे त लोहा ह सोना बना बन जथे, यानें पारस सद्गुरू ह जेन भी साधक ल चाहही वोला अंतर्यात्रा म कुछ उप्पर उठा दिही, फेर इहु सद्गुरू म कुछ कमी रहिथे, के वो ह साधक ल अपन जइसे नइ बना सकय, जइसे पारस ह लोहा ल छू के सोना तो बना देथे, फेर लोहा ल पारस नइ बना सकय न, ठीक वोईसने | दूसर सद्गुरू हे दीपक सद्गुरू-जउन ह अपन सद्ग्यान रूपी दिया म साधक के अंतस के सुप्त-गियान रूपी दिया ल छुवा के जला देथे, फेर येमा एकठन सरत ये हे के साधक म लगन बने रहय अउ गुरू के प्रति स्रद्धा-बिस्वास म कोनो कमी मत राहय| यदि साधक म लगन अउ स्रद्धा-बिस्वास म कमी हे याने साधक के अंतस-रूपी दिया म स्रद्धा-बिस्वास रूपी तेल बाती के कुछ कमी हे त दीपक गुरू ह साधक के गियान के दिया ल नइ जला सकय| तीसर सद्गुरू हे मलयागिरी सद्गुरू,यथा-
मलयागिरी के निकट जो सब द्रूम चंदन होंहि|
कीकर सीसम चीर तरू हुये न कबहु होंहि||
यानें एकर सत्संग म जउन भी साधक आथे, वो ह कभु न कभु वोकरे जइसे हो जाथे| फेर इहु म कुछ कमी हे, के यदि साधक मूढ़ अउ अविवेकी हे त मलयागिरी गुरू ह घलो साधक ल सहारा नइ दे सकय| मानस ह एकरे बर कहे घलो हे
मूरख हृदय न चेत जो गुरू मिलहि बिरंचि सम|
चउथे सद्गुरू भृंगी सद्गुरू कहाथे, जइसे भृंगी कीरा ह कोनो भी कीरा ल अपन कैद म कर लेथे त डर के मारे कैदी कीरा ह अपन चित्त ल भृंगी कीरा कोती लगायच रथे, त कुछ दिन म कैदी कीरा के सरीर म घलो पंख जाम जथे, अउ भृंगी के रूप धर के उड़े ल घलो धर लेथे|वोईसने साधक मन घलो धीरे धीरे अपन गुरू के गुन ल धारन कर लेथे| भृंगी सद्गुरू म कोनो परकार के कमी नइ राहय, फेर साधक यदि मूढ़ हे त वोला अपन ईस्ट के दरसन करे बर ये परकार के गुरू संग भी जादा समय लग जथे|
अब समरथ गुरू के बारे म बिचार करिन, समरथ गुरू वो गुरू हरे, जउन म उप्पर के जम्मों गुरू के गुन ह समाय रहिथे| दया उमड़थे त वो ह साधक ल छन भर म भगवान के तीर म पहुंचा देथे, या कहे जाय के समरथ गुरू ह एक परकार ले भगवानेच आय|संत सहजो बाई ह अपन गुरू चरनदास जी बर कहे हे –
चरणदास समरथ गुरू सर्व अंग तिहि मांहि|
जैसे को तैसा मिले रीता छोड़े नाही||
कबीर दास जी घलो अपन गुरू रामानंद जी बर कहे हे –
साहेब सम समरथ नहिं गरूवा गहर गंभीर|
अवगुन मेटे गुन रहे छनिक उतारे तीर||
आज हमन अपन चारो डाहर देखथंन त ये पाथन के थोरकन सास्त्र-गियान होय के बाद लोगन मन गुरू बने के जतन म लग जथे, अउ साधक मन ल छलत अउ लूटत रहिथे| अईसन म बिचारा साधक मन असल गुरू के पहिचान कईसे करय, एकर बर कबीर दास जी कहे हे-
गुरू मिला तब जानिये मिटै मोह संताप|
हर्ष शोक ब्यापै नहीं तब गुरू आपै आप||
मानें अईसन भगत ल अपन गुरू बनाव जेकर तीर म रहे के मन करथे, जेकर उपदेस ल सुन के मोह, दुख-सुख हरा जथे, अउ जेकर तीर म रहे ले सांति के अनुभव होथे|
भगवान सबो उप्पर दया अउ किरपा करय, इही मोर कामना हे|
ललित वर्मा,”अंतर्जश्न”,
छुरा