छत्तीसगढ़ी के मानकीकरन अउ एकरूपता : मुकुन्द कौशल

बिलासा कला मंच कतीले सन् दू हजार एक म छपे, डॉ पालेश्वरशर्मा के लिखे छत्तीसगढ़ी शब्दकोश के भूमिका म छत्तीसगढ़ी के बैंसठ मानक शब्द मन के मायने अउ ओकरे सँग वर्ण /संज्ञा/वचन/सर्वनाम/विशेषण/क्रिया अउ कृदन्त ले संबंधित ब्याकरन के गजब अकन जानकारी, डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा जी ह अगुवा के लिख डारे हवैं।

डॉ. चित्तरंजनकर अउ डॉ. सुधीर शर्मा के सँधरा किताब “छत्तीसगढ़ी भाषा, स्वरूप और संभावनाएँ” जउन सन् दू हजार म छप चुके हे, ते मा घलो ये बिसय उपर बनेकन अँजोर डारे गे हवै।

हकीकत म मानकीकरन ह, छरियाए बोली मन मा समानता लाने के उदिम आय। मानकीकरन ह, पहिली लिखई म अ़ँवतरथे ओकर बाद बोलब मा। मानकीकरन के मतलब, भासा के कोनो एक मुँहरन ला स्वीकार करना तहवै, फेर दूसर मुहरनमन के अस्वीकार बिल्कुल नोहै। मानकीकरन मा सबो कती के सुग्घर-सुग्घर शब्द अउ बोले बताए के शैली ला मिंझार के, एकमई करके ओला सहज बनाना हवै। ओला फरियाना हवै। काबर के बोली ले भासा बनथे, भासा ले बोली नइ बनै। बोली मन नँदिया हे त भासा समुद्र हवै। साखी बर हिन्दीच्च् ला ले लौ। आज हम जतकापान सुग्घर हिन्दी लिखत-पढ़त-बोलत हन, ओतकापान सीखेबर, उहाँतक पहुँचेबर हमला दू सौ बछर के अगोरा करे बर परे हे।

मानकीकरण ला लेके घेरीबेरी एक सवाल उचाए जाथे के जिहाँ -कवर्धाई, काँकेरी, खैरागढ़ी,गोरो, डंगचघा, गौरिया, देवरिया, धमधी, नदगाँही, पारधी, बहेलिया, बिलासपुरी, लरिया, बैगानी, रतनपुरी, रायपुरी, सिकारी अउ सतनामी के संगेसंग कमारी खल्टाही, पनकी, मरारी, नागवंशी, पंडो, सदरी-कोरवा, सरगुजिया, ललंगा, बिंझवारी, कलंजिया, भूलिया, अड़कुरी, चंदारी, जोगी, धाकड़, नाहटी, बस्तरिहा, मिरगानी, मेहरी, गोंड़ी अउ हल्बी असन कतकोन, किसम-किसम के बोली बोले जाथे उहाँ भासा म एकरूपता कइसे आही ? अउ अतेक अकन बोली बोलइया प्रान्त मा छत्तीसगढ़ी के मानक रूप कइसे गढ़े जाही ?

कहे जाथे के “कोस-कोस म पानी बदलै, चार कोस म बानी ” ये कहावत सबो-जघा लागू होथे। जाहिर हवै के भारत भर म आने-आने बोली-भासा होए के बाद घलो, हिन्दी ला जइसे सबो कती के मन समझ जाथें तइसने छत्तीसगढ़ी ला घलो पूरा प्रदेशभर के रहइयामन समझथें। नंदिया ह जे मेरन समुद्र मा अमाथे ते मेरन पहुँच के वो ह थिरा नइ जावै बल्कि ओकर जोरहा प्रवाह ह समुंदर म गजब दुरिहा तक भितरी तक ओइल जाथे। वइसने बोली ह घलो अपन सरहद्दी म जाके थिरा नइ जावै, वोह दूसर बोली भीतर, गजब दुरिहा तक धँस के ओकर संग घुरमिल जाथे अउ वो सरहद्दी मेरन एक नवाच्च किसम के मिंझरा बोली के निर्मान होए लगथे। इही ह मानकीकरन के क्षेत्रीय प्रक्रिया हवै। मानकीकरन के अइसने क्षेत्रीय प्रक्रिया, जब प्रांतीय स्तर म होए लगही, तब्भे मानकीकरन के सुरूआत माने जाही।

इहाँ समझे के एक ठिन खासबात ये हर हवै के जब मानक भासा तैयार हो जाथे त वोह लिखे पढ़े के काम आथे। बोले बताए के माध्यम त बोलीच्च बने रहिथे। अउ ये मानकीकरन-घंटा दू घंटा, दू-चार दिन या साल दू साल के काम नोहै।

कथे निही? के “हथेरी म दही नइ जामै ।” तइसने कोनो भासा के मानकीकरन खातिर घलो गजब समे लागथे। भासा ह बनत-बनत बनथे। अभिन त हमरे कती के छत्तीसगढ़ी म एकरूपता नइये। भासा विज्ञानी मन गोहार पार-पार के काहात हें के “येदे अइसन लिखो भइया हो”, फेर लिखइयामन घेपैं तब? कोनो इन्कर ला इन्खर /उन्कर ला उन्खर, इँकर ला इँखर अउ उँकर ला उँखर लिखत हें त कोनों इही मेर, उही मेर ला /इही मेरन-उही मेरन लिखत हें। कोनो जावत हे ला सही कथे, त कोनो -जावत हवै ला, अउ कोनो जावत हावै ला।

कोनो “वइनस बात” ला “वइसनाहा बात” लिखत हे त कोनो “कहे जावत हे ” ला “केहे जात हे”लिखत हें आनी -बानी के हरहिंछा शब्द प्रयोग हमन अपन लिखई म करत हवन। एक छत्तीसगढ़ी पत्रिका त भासा के खन्तीच्च खन डारे हे। वोह आवत हवै-जावत हवै के बल्दा आवा थाबे/जावा थाबे/खावाथाबे अउ लीखाथाबे असन घोर अलकरहा शब्द प्रयोग करथे। लिखइया-पढ़इया भाई-बहिनीमन ले मैं ह गेलौली करके कहत हौं के एक पइत छत्तीसगढ़ी के ब्याकरन संग मानक छत्तीसगढ़ी के अध्ययन अउ अभ्यास कर लेवैं, तेकरबाद उन जउन लिखहीं, जइसन लिखहीं वो म एकरूपता के संभावना बाढ़ जाही। मैं फेर काहात हौं के अभिन त हमरे क्षेत्र के भासा म एकरूपता नइये त हम प्रदेस भर के भासा के मानक स्वरूप कइसे गढ़े सकब़ो?

सवाल येहू हवै के अभिन हमर मेर, छत्तीसगढ़ी के कतका अकन गद्य साहित्य मौजूद हे? अभिन त हमर गद्य साहित्य ह दूध पियत लइका हे। मड़िया के रेंगना चालूच्च करे हे। अपन गोड़भार खड़े घलो नइ हो पाए हे।

छत्तीसगढि़या हिन्दी साहित्यकार मन घलो दू-भाखा छत्तीसगढ़ी लिखब म थथमरा जावत हें। अच्छा-अच्छा मन के पछीना छूटत हे। छत्तीसगढ़ी भासा के नंदिया मा अभिन गजब पातर धार चलत हे। लिखे बर त जियान परते हे, फेर लिखी लेबे, त पढ़े नइ पावत हें।

काहात हें – “छत्तीसगढ़ी में फ्लो नइ आता है यार….” हमर भासा ह अभिन बिकास के रद्दा मा रेंगत हे। अउ अचरज ये बात के होथे के छत्तीसगढ़ी म एकरूपता लाएबर जऊन बिद्वानमन अउ संपादक मन मानक निर्धारित करत हें तउने मन लिखत खानी अपने सिरजाए मानक के पालन नइ करैं। ये कहब अउ पतियाए म हमला कोनो किसम के उजर नइ होना चाही, के हमर छत्तीसगढ़ी एक समरथ भासा होए के बाद घलो अभिन येमा अतका ताकत नोहै के हिन्दी के पँदौली बिना अपन सबो बिचार ला फरिया के गोठियाए जा सकै। इही परेसानी के कारन जे मन ला छत्तीसगढ़ी लिखे के बनेकन अभ्यास नइये, उन मन अपन छत्तीसगढ़ी गद्य मा अतका जादा हिन्दी शब्द मिंझार देथें के आरूग क्रियाच्चभर छत्तीसगढ़ी रहि जाथे। भासा के कते रूप ला, कते मुँहरन ला स्कूल-कालेज मा पढ़ाए जाना चाही, ये बिसय घलो ओतका सहज नोहै जतका दिखथे। अइसन बेरा हमला चाही के पहिली त हम अपने लिखई म एकरूपता लानन, कारन के एकरूपताबर अउ मानकीकरन खातिर पहिली साहित्य के सरलग सिरजन जरूरी आय।

मुकुन्द कौशल
एम. -५१६, कौशल विला, साहित्य पथ, पद्मनाभपुर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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