– डॉ. दादूलाल जोशी ‘फरहद’
लोक कथाओं के लिए छत्तीसगढ़ी में कथा कंथली शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह वाचिक परम्परा की प्रमुख प्रवृत्ति है। कथा कंथली दो शब्दों का युग्म है। सामान्य तौर पर इसका अर्थ कहानी या कहिनी से लिया जाता है किन्तु वास्तव में इसके दो भिन्न भिन्न अर्थ सामने आते हैं। इसका ज्ञान तब होता है, जब कथा वाचक लोक कथा कहना शुरू करता है। छत्तीसगढ़ में प्रायः लोक कथाकार बतौर भूमिका निम्नांकित पक्तियों को दीर्घ कथा प्रस्तुत करने के पूर्व बोलता हैः-
कथा आय न कंथली ,
जरे पेट के अंतड़ी ।
चार गोड़ के मिरगा मरे ,
कोनो खावे न पिये ।।
उपर्युक्त पद्य में कथा और कंथली दोनो शब्द भिन्न भिन्न आशय के लिए प्रयुक्त हुए हैं। कथा माने दीर्घ कहानी जिसमें विभिन्न घटनाक्रमों का पर्याप्त समावेश रहता है। उसकी शैली मूल रूप से गद्यात्मक होती है। कंथली छोटी होती है। उसकी शैली प्रायः काव्यात्मक होती है। उनमें तुकबंदी का प्रयोग स्पश्ट रूप से परिलक्षित होता है। यह समस्या पूर्ति अथवा प्रहेलिका के रूप में भी हो सकती है।इसके अंतर्गत भाठों के कवित्त को भी रखा जा सकता है।छत्तीसगढ़ में भाठों की भी परम्परा रही है।इससे जुड़ा हुआ एक कहावत भी प्रचलित था , जैसे:- ‘जेकर भाठ नही , तेकर जात नहीं’,अर्थात यदि किसी जाति का भाठ या चारण नहीं है तो वह जाति की श्रेणी में नहीं आती है।वर्तमान में भाठों की परम्परा लगभग लुप्त हो चुकी हैं।इस विशय पर स्वतंत्र रूप से चर्चा की जा सकती है। बहरहाल कंथली के भावार्थ या गूढार्थ को सही तरह से नहीं समझ पाने की स्थिति में यह मात्र मनोरंजनार्थ प्रस्तुत की गई व्यर्थ की वार्ता प्रतीत हो सकती है ,जबकी वाचिक परम्परा की कोई भी सामग्री फालतू या बकवास नहीं होती हैं। सभी का निश्चित भावार्थ होता हेै तथा उसके केन्द्र में तत्कालीन समाज की सभ्यता और संस्कृति होती है। वाचिक परम्परा का उत्कृश्ट रूप गाँवों में ही देखने को मिलता है। रात्रि कालीन भोजन के पश्चात वाचक और श्रोता निश्चित स्थान पर स्वस्फुर्त या स्वप्रेरित उपस्थित हो जाते हैंऔर कथारस प्रवाहित होने लग जाता है। कुशल कथा वाचक का स्थान समाज में सम्माननीय होता है। वह हर आयु वर्ग के लोगों के लिए श्रद्धेय होता है। इसका कारण यह है कि – एक तो वह fनःशुल्क सेवा देता है तथा दूसरा उसके स्मृतिकक्ष में कथा कंथली का पर्याप्त संग्रह होता है। कथानकों एवं घटना प्रसंगों का वैविध्य और कहने की रोचक शैली कथा वाचक का विशेश गुण होता हैं। यहाँ एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि कथा कहने और सुनने का कार्य व्यापार हुंकारू देने वाले सहयोगी के बगैर सम्पन्न नहीं हो सकता । कथा वाचक पहले ही शर्त रख देता है कि किसी एक व्यक्ति को हुंकारू देना होगा । वह ऐसा व्यक्ति होगा जो ठीक अवसर पर , उंची आवाज में हुंकारू देगा साथ ही वह पूरे समय सजग और सचेत रहेगा । हुंकारू देने वाला कुछ तय शुदा शब्दों का प्रयोग करता है जैसे – हाँ , हव , या अच्छा जी इत्यादि । कथा हो या कंथली – ये वक्ता और श्रोता दोनों को अनिवर्चनीय आनंद तो प्रदान करती ही है साथ ही साथ परिवेश और समाज के सभ्यता , संस्कृति और इतिहास को भी युगानुरूप अभिव्यक्त करती है। प्रस्तुत है कथा कंथली का एक उदाहरण जो मुंगेली तहसील में ‘‘ ईर , बीर , दाउ और मय ‘‘ शीर्शक से प्रचलित रही है:-
(1) ईर कहिस चल बांस काटे , (2) ईर काटिस ईर बांस
बीर कहिस चल बांस काटे , बीर काटिस बीर बांस
दाउ कहिस चल बांस काटे , दाउ काटिस तीन बांस
हमू कहेन चल बांस काटे । हम काटेन कनई ।
(3) ईर कहिस चल गुलेल बनई (4) ईर बनाइस ईर गुलेल
बीर कहिस चल गुलेल बनई बीर बनाइस बीर गुलेल
दाउ कहिस चल गुलेल बनई दाउ बनाइस तीन गुलेल
हमू कहेन चल गुलेल बनई । हम बनायेन गुलेलिया ।
(5) ईर कहिस चल चिरई मारे (6) ईर मारिस ईर चिरई
बीर कहिस चल चिरई मारे बीर मारिस बीर चिरई
दाउ कहिस चल चिरई मारे दाउ मारिस तीन चिरई
हमू कहेन चल चिरई मारे । हम मारेन लिटिया ।
ईर कहिस चल छेना बीने ईर बीनीस ईर छेना
बीर कहिस चल छेना बीने बीर बीनीस बीर छेना
दाउ कहिस चल छेना बीने दाउ बीनीस तीन छेना
हमू कहेन चल छेना बीने। हम बीनेन कन्डों।
(9) ईर कहिस चल चिरई भूंजे (10) ईर भूंजीस ईर चिरई
बीर कहिस चल चिरई भूंजे बीर भूंजीस बीर चिरई
दाउ कहिस चल चिरई भूंजे दाउ भूंजीस तीन चिरई
हमू कहेन चल चिरई भूंजे हम भूंजेन लिटिया।
(11) ईर कहिस चल पिढ़वा लाये (12) ईर लानीस ईर पिढ़वा
बीर कहिस चल पिढ़वा लाये बीर लानीस बीर पिढ़वा
दाउ कहिस चल पिढ़वा लाये दाउ लानीस तीन पिढ़वा
हमू कहेन चल पिढ़वा लाये । हम बइठेन वइसनेच्च ।
(13) ईर कहिस चल चिरई खाई (14) ईर खाईस ईर चिरई
बीर कहिस चल चिरई खाई बीर खाईस बीर चिरई
दाउ कहिस चल चिरई खाई दाउ खाईस तीन चिरई
हमू कहेन चल चिरई खाई । हम खायेन लिटिया ।
(15) ईर कहिसचल घोड़ा लिहे (16) ईर लेईस ईर घोड़ा
बीर कहिस चल घोड़ा लिहे बीर लेईस बीर घोड़ा
दाउ कहिस चल घोड़ा लिहे दाउ लेईस तीन घोड़ा
हमू कहेन चल घोड़ा लिहे। हम लेयेन गदही ।
(17) ईर कहिस चल घोड़ा पहटाई (18) ईर पहटाईस ईर घोड़ा
बीर कहिस चल घोड़ा पहटाई बीर पहटाईस बीर घोड़ा
दाउ कहिस चल घोड़ा पहटाई दाउ पहटाईस तीन घोड़ा
हमू कहेन चल घोड़ा पहटाई हम पहटायेन गदही ।
(19) ईर कहिस चल पानी पिये (20) ईर गईस ईर डबरी
बीर कहिस चल पानी पिये बीर गईस बीर डबरी
दाउ कहिस चल पानी पिये दाउ गईस तीन डबरी
हमू कहेन चल पानी पिये। हम गयेन गदही उबरी
( तेमा हमर गदही सटकगे )
(21) ईर के घोड़ा होन -होन , होन-होन
बीर के घोड़ा होन-होन ,होन-होन
दाउ के घोड़ा होन-होन ,होन-होन
हमर गदही चींपों – चींपों ।
(22) ईर कहिस चल आमा खाय (23) ईर खाईस ईर आमा
बीर कहिस चल आमा खाये बीर खाईस बीर आमा
दाउ कहिस चल आमा खाये दाउ खाईस तीन आमा
हमू कहेन चल आमा खाये हम खायेन कचलोइया
( पहुंचगे गोंसईया )
(24) ईर ला मारीस ईर लाठी
बीर ला मारीस बीर लाठी
दाउ ला मारीस तीन लाठी
हम गयेन बोचकइया।।
प्रस्तुत कंथली में एक तरफ ग्रामीण जन की मनोवृत्ति और उनके राग विराग का आभास होता है तो दूसरी तरफ सामाजिक,राजनीतिक,और आर्थिक दशाओं का ज्ञान भी हो जाता है।इससे तत्कालीन समाज के दर्शन (फिलासफी) से साक्षात्कार भी होता है।इस कंथली का कथासार इस प्रकार हैः-’’ इसमें चार पात्र हे- ईर ,बीर , दाउ और कथा वाचक । चारों तय करते हैं कि उन्हें बांस काटने के लिए जाना चाहिए । वे सभी बांस काटने के लिए जंगल जाते हैं और अपनी
अपनी हैसियत के मुताबिक बांस काटते हैं। ईर , बीर , और दाउ समाज के विशिश्ट लोग हैं , इसलिए उनके बांस मजबूत और लम्बे होते हैं । दाउ के बांस की संख्या तीन होती है क्योंकि वह गाँव का मुखिया है। इस कथा का सर्जक स्वयं को साधारण व्यक्ति मानता है।इसलिए पतले बांस का छोटा टुकड़ा ही काटता है। फिर वे लोग उसका गुलेल बनो हैं। ईर ,बीर और दाउ के गुलेल बड़े और सुन्दर होते है किन्तु लोक कथाकार का गुलेल साधारण और छोटा होता है, जिसे वह गुलेलिया कहता है। गुलेल बन जाने के बाद वे चारों चिड़ियों के शिकार करने जाते हैं। ईर एक चिड़िया , बीर दो चिड़िया और दाउ तीन चिड़िया मारते हैं जो बड़ा-बड़ी है किन्तु कथाकार छोटी और मामूली का शिकार करता है। शिकार को भूनने के लिए चारों इंधन की तलास में जाते हैं । शुरू के तीनों पात्र गाय,बैल और भैंस के गोबर के बड़े सूखे कन्डे (छेना) बीनते हैं।कथाकार बछड़े के गोबर का सुखा हुआ छोटा कन्डा (खरसी) बीनता है क्योकि उसकी चिड़िया छोटी (लिटिया) है। आखिरकार उनके शिकार के भुन जाने पर वे उसे खाने के लिए बैठते हैं। ईर , बीर और दाउ बैठने के लिए आसन (पीढ़ा)ले आते हैं किन्तु कथाकार के पास पीढ़ा नहीं है लिहाजा वह जमीन पर बैठ कर खाता है। फिर चारों घोड़ा खरीदने की योजना बनाते हैं। ईर , बीर और दाउ बढ़िया घोड़ा खरीदते हैं लेकिन कथाकार गदही खरीदता है। वे अपने अपने पशुओं को चारा चराने ले जाते हैं । चारा चरा लेने के बाद छोटे जलाशयों में पानी पिलाने ले जाते हैं। जलाशय भी उनकी हेसियत के मुताबिक बने हुए हैं। लोक कथाकार का जलाशय गदही डबरी के नाम से संबोधित होता है। सबके घोड़े पानी पी कर सकुशल लौट आते हैं किन्तु कथाकार की गदही कीचड़(दलदल) में फंस जाती है क्योंकि वहाॅ पानी कम और कीचड़ जादा है। अगले क्रम में वे चारों आम खाने की इच्छा प्रकट करते हैं और एकमतेन हो कर आम के बगीचे में पहुँच जाते हैं ईर ,बीर और दाउ बड़े-बड़े पके हुए मीठे आम खाते हैं लेकिन कथाकार अधपके आम खाकर संतुश्ट हो जाता है। चूंकि आम के बगीचे का मालिक कोई अन्य व्यक्ति है । वह रखवाली करता हुआ वहाँ पहुँच जाता है।चारों को आम की चोरी करते हुए पकउ़ लेता है और उन्हें दण्डित करता है। ईर एक लाठी की मार खाता है,बीर दो और दाउ तीन लाठी की मार सहता है। कथाकार चतुराई दिखाता है ,ओर वहाँ से भाग जाता है। इस तरह वह सजा पाने से बच जाता है।
उपर वर्णित कहानी सामान्य घटनाक्रमों पर आधारित हैं। इससे हास्य रस की अनुभूति होती है । इस कथा का सार सौंदर्य दण्डित होने से बच जाने की चतुराई है। कथानक साधारण है किन्तु इसका भावार्थ या गूढ़ार्थ गंभीर है।इसके गूढ़ार्थ को अनेक तरह से व्याख्यायित कर सकते हैं। सामाजिक , आर्थिक और दार्शनिक तीनों प्रकार से इसकी व्याख्या हो सकती हैं। इस कंथली में चार लोग चार वर्ग के रूप में उपस्थित हैं। सभी पात्र व्यक्ति वाचक संज्ञा होते हुए भी यहाँ जाति वाचक संज्ञा हैं। चूंकि यह कथा सामंती व्यवस्था के युग की रचना है , अतः उस युग की छाप इसमें होना स्वाभाविक है। कथा में ईर शासन प्रशासन के छोटे कारिन्दों का प्रतीक है जो हमेशा एक हिस्सा पाने की फिराक में लगे रहते हैं। बीर बड़े अधिकारियों, दलालों, साहूकारों का प्रतीक है जो दोगुना हिस्सा पाना चाहतें हैं तथा दाउ पूंजीपति , गौंटिया ,जमीदारों एवं मालगुजारों का प्रतीक हैं जिनका हिस्सा हमेशा तीन गुना तय रहता है। इसे समझने के लिए जमींदारी व्यवस्था को समझना होगा । कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने गोदान उपन्यास में इसका परिचय दिया है। उनकी कहानी ‘पूस की रात’ जमींदारी व्यवस्था का जीता जागता दास्तान है। गाँव की अधिकांश जमीनों का मालिक जमीदार ही होता था।वह खुद खेती नहीं करता था बल्कि भूमि हीन किसानो को बटाई या रेगहा या कट्टू में दे देता था । उपज का तीन हिस्सा जमींदार का होता था तथा एक हिस्सा किसान को प्राप्त होता था।इसीलिए दाउ का हर काम तीन की संख्या में होता था । कथा में एक पात्र ‘हम’ है , जो कथा का सर्जक है। वह मेहनतकश किसानों , मजदूरों एवं गरीब तबके का प्रतिनिधि है।यह आश्चर्य जनक है कि कथा का सृजेता स्वयं को सभ्रान्त वर्ग में न रख कर मेहनतकश किसानों और मजदूरों के वर्ग में रखना पसंद करता है। इससे यह निश्चित हो जाता है कि इस कथा का रचनाकार श्रमिकवर्ग से ताल्लुक रखता है।
इस कथा में विरोधाभासी असंगत कार्य व्यापारों का वर्णन है। इसलिए प्रश्न उठता है कि ईर ,बीर और दाउ तीनों सुविधा- सम्पन्न हैं तो ऐसी स्थिति में वे बांस काटने ,गुलेल बनाने ,और चिड़िया का शिकार करने क्यों जायेंगे? छेना (कन्डे)बीनने और पशु चराने का काम क्यों करेंगे? चारों वर्गो में दोस्ती कैसे हो सकती है? चारों के विचारों में समानता कैसे आ सकती है?लेकिन लोक कथाकार ने एंेसा करवा दिया है। इससे यह स्पश्ट हो जाता है कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति आदि काल से व मूल रूप् से श्रम संस्कृति ही रही है। अतः छत्तीसगढ़ी संस्कृति के प्रत्येक पहलू पर लेखन व अनुशीलन करते वक्त विद्वानों को चाहिए कि वे अपनी स्थापनाओं के केन्द्र में यहाँ की श्रम संस्कृति को रख कर ही कार्य करें , अन्यथा उनकी स्थापनाएँ झूठी और भ्रामक समझी जायेगी।
इस कथा का सौंदर्यशास्त्र ‘‘हम’’ अर्थात किसान और गरीब श्रमिक वर्ग के क्रियाकलापों में दिखाई देता है। यह वर्ग मुगालते में नहीं है। वह अपनी स्थिति व नियति को भलिभांति जानता ,समझता है। इसीलिए वह झूठे शानों-शौकत से बचकर रहता है।यही कारण है कि वह छोटा बांस(कनई) काटता है। छोटा गुलेल (गुलेलिया) बनाता है। छोटी चिड़िया (लिटिया ) का शिकार करता है। भूनने के लिए बछड़े के गोबर का छोटा छेना (कन्डों या खरसी) बीनता है। भूनी चिड़िया को खाने के लिए पीढ़ा के बजाय जमीन पर ही बैठ कर खा लेता है।उंचे वर्ग के लोग घोड़ा खरीदते हैं क्योंकि उन्हें सवारी करना है।गरीब किसान और श्रमिक को घोड़े की सवारी से क्या मतलब ? इसीलिए वह गदही खरीद लेता है।गदही पर सवारी नही कह जा सकती बल्कि उसे अर्थोपार्जन में सहायक बनाकर कामलिया जा सकता है।अन्य वर्ग के घोड़े अच्छे जलाशयों में पानी पीकर सकुशल लौट आते हैं किन्तु इनकी गदही कीचड़ (दलदल) में फंस जाती है।कथाकार ने बहुत ही सटीक प्रतीक को चुना है । यहाँ के किसानों और श्रमिकों का जीवन भी उसी तरह नाना प्रकार की मुशीबतों के दलदल में फंसा हुआ है।
अंत में चारों पात्र आम खाने के लिए बगीचे में जाते हैं । ईर ,बीर और दाउ पेड़ पर अच्छी तरह पके हुए मीठे आमों को खाते हैं लेकिन गरीब किसान या मजदूर ऐसे आमों को नहीं खाता हैं । उसे मालूम है कि वह बगीचा किसी अन्य व्यक्ति की मिल्कियत है । उसकी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाना अनैतिक कार्य है। इसीलिए वह जमीन पर गिरे हुए अधपके (कचलोइया) आमों को खाकर संतुश्ट हो जाता है। जब बगीचे का मालिक वहाँ पहुँचता है और उन्हें चोरी करते हुए देखता है तब उनको वह दण्डित करता है। ईर को एक लाठी मारता है , बीर को दो तथा दाउ को तीन लाठी मारता है। किसान या श्रमिक दण्डित होने से इसलिए बच जाता है क्योकि उसने बगीचे को किसी तरह का नुकसान पहुँचाये बगैर गिरे हुए आमों को खाया था। इस कथा का अंतिम सार यही है कि सुविधा भोगी वर्ग अतिरिक्त आय (सरप्लस मनी) कमाने के फेर में बेहिचक अनैतिक कार्यों को अंजाम देते हैं।
निश्चित रूप से इस कथा के दार्शनिक गूढ़ार्थ की उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि भारतीय दर्शन (इंडियन फिलासफी) की परिव्याप्ति सर्वत्र है।शिक्षित-अशिक्षित,अमीर-गरीब,शहरी- देहाती सभी में भारतीय दर्शन का प्रभाव यत्किन्चित रहता ही हैं फिलहाल उस पर चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता हैं
पता- ग्राम -फरहद , पो.-सोमनी ,जि.- राजनांदगाँव
मोबा- 9406138825
I have recited this poem (with little variation)in my childhood days with my brothers and friends.I love it.
जोशी जी आपके कथा कंथली पढेंव बड निक लागिस,छत्तीसगढ के विलुप्त होत कथा कंथली ला गुरतुर गोठ के माध्यम ले पाठक मन सो पहुंचाय बर साधुवाद,नवा पीढी मन ला घलो आपके आलेख् के माध्यम ले जानकारी होही कि हमर छत्तीसगढ म कथा कंदली कइसे प्रचलित रही से अउ कथा कंथली के माध्यम ले आम जनता अपन बात ल कईसे प्रसारित करय