एतवारी बजार के दिन । जाने चिन्हें गंवई के मोर संगवारी सिदार जी असड़िहा घाम म किचकिचात पसीना, म लरबटाये, हकहकात, सायकिल ले उतर के, कोलकी के पाखा म साइकिल ल ओधा के, हमर घर बिहनिया नवबजिहा आइन । कथें मोला- “हजी, चला बजार जाबो । थोड़कन हाट कर दिहा।” जाय के मन तो एकरच नी रहिस । हाथ म पइसा, कउड़ी रहतिस त बजार करथें, एकघ टारे कंस करथों माने नहि, त जायेच बर परिस।
बस्ती के दूकान ले साबुन बनाये के कास्टिक सोडा बिसायेन । ओमन लीम तेल के साबुन बनाके चुपरेथें, कपड़ा ओंढा सबनाथे, आऊ चुपरेथें घलो, माछी-मच्छड़ नी चाबही क के फोड़ा-फुन्सी आऊ खुजरी भी नी होये ओ साबुन ला चुपरे ले। हमीमन लफरआ अन-गंधाथे साला हर।
सिदार जी राखड़ बोरा के थैली ला साइकिल के-केरियर म-जोन हर चिपाय रथे, फट ले तीर के निकारथें आऊ मोला धरा देथें, कास्टिक ल ओ म डार के। अपन साइकिल ला एक हाथ म धरे, एक हाथ ला झुलात रेंगे लगथें। गैं ऊंकर पीछू-पीछू कमिहां कस सुटुर-सुटूर रेंगथों।
घाम चढ़त रहे मुड़ अंगत, मैं गुनत हों-होटल होटली म समाबो काय, लेकिन कुछू अंगत नी समायेन। सीधा लोहा के दूकान म गयेन । सिदार जी साइकिल ला भी मोला धराइन आऊ नांगर लोहा के भाव पूछिन- “का भाव ये गा ?” तभे छइहां म ऊंकर तीर महूं लकठियायें त मोला कथें – “देखा त अच्छा हे नी येहर।” मैं का जानों नांगर के कारबार । मोर बाप ददा मन तो डोली के मुख नी देखे हें कभु, सफा तराई, नरवा, झोरखी के किन्दरइया, त मैं का जानो। तब ले कहें- बने हे।” लोहा नांगर ला बिसा के मे रखेंव थैला म । रिस म मोर जी हर का नी का हो जावत रहे, सफा मोला कमिहां कस बना डारें हें, भागत भी नी बनत रहे, न रहत । काबर की कभूकाल त आथें मोर संगवारी । चाऊर-चवरा घलो लान देथें मोर बर, ओला कइसे रिसायाओं । ओई गुन के संग म चले जावत रहों ।
धीरे धीरे बजार पहुँचेन, मोर जान-पहचान के पान ठेला म ऊंकर माइकिल ला राख के आठ आना ला बचा के साबासी लूटें । सिदार जी खुस, मुचमुचात, पसीना ला पोंछत बजार भीतर ला पेलेन- सीधा नून के पसरा म। थैला ला एक हाथ म मैं धरे हों, सिदार जी नून वाला ला कथें- “का भाव ए भाई ?” एक रुपिया के ढेड़ किलो, हाँ तं अइसन कर दस किलो दे दे ।” मोर जी सक करिस, गय रे साला, कभू बोहे बर कहिन त, मोर जऊंहर होगे। आक-पाक, आगू-पीछू देखे लागें सब अंगत चीन-जान के सलगत रहें-थैला धर धर के। अच्छा होइस ओई बखत ओइस परसा म सिदार जी के गांव के-मइनखे एकझन आगे, मैं गुने बाँचे रे बबा । वहाँ ले हरेन त चना, मूंग, उरीद आऊ उसने कच्चा जिनिस के पसरा ठऊर म आयेन । सिदार जी खरकस चना तीन किलों बिसाइन, थैला मोला थमाइन ! मोर जी बियाकुल होवत रहे अउ ओला बजार करे बर। कथें-बस चला जी, एकरंच बाँचे हावे, अब करेला लेबो, तहां ले होगे । मोर जी नीच्च सहाइस त कहें- सिदार जी, तूं ले के आवा, मैं पान ठेला म साइकिल तीर रहिहों । मोर मन के भाव ला एक रंच जानिन काय आऊ कथें- आवा कछु खाबो । भूखात रहे, एकत ग्यारवां चढ़त रहे, पसीना माथा ले चुंतर अंग त निथर जात रहे। केंबटिन पसरा म एक-एक रुपिया के बरा खाके, सिदार जी ला छोंड़ के आने डहर रेंगें-गारी-देवत मन मन म, बजार ले बहिरात रहें।
ओई बखत झुलत-झुलत, पसीना म लरबटाये, खाली थैला(झोला) ला लटकाये, ओंठ ला पोंछत, धकियात, धक्का खात, मोर सहर के नाक, बिद्वान साहित्यकार डॉ. भैया आवत रहे। देखत की हाँस भरिस, महुं जोहार करें, अच्छा लागिस मोला, बिहान ले सिदार जी के केचकेचवाई म जी हर बियाकुल रहे। अब हमन दुनों जोड़िया गयेन। मैं पूँछें “भैया, का ले डारे ?” तभे कथे- “का लेबे रे भंवरा, तीन रूपिया राखे हों, सागेच नी मिलथे।” कहें- अतेक साग म साग के कोको, चल चली जाई त भीतर डहर म।”
गोठियात-गोठियात साग सालन के पसरा अंगत आयेन । सबो रोज के हटरी म बइठइया मल्लिन, कोचनीन दाई मन रहें, कुछू नवा-नवा कोचनीन आऊ-देहात के नवा पसरा करइया डौकी-डऊका ।मल्लिन पसरा म हमन गयेन । त भैया, जाके चार आना के भाजी-मांगथे, खाली ला ताला म चोका के दूरूपियाही नोट ला निकार के देथे, मल्लिन कथे- “चिल्हर दे, नी त अउ बिसो एक रूपिया बारह आना के।” भैयाकथे- “चिल्हर नीये।” मल्लिन जंगा के हाथ के झोला ला लुट के भाजी ला झट निकार के दू रूपियाही नोट ला आघु म फेंक देथे । हमन अबक होके देखथन-ओकर कार-बार ला, आऊ आक-पाक ला देक के हांसत आघु निकर जाथन । ये गुनत की-हमन ला कहूं देखिन ते-नीहिं। कहां के माजी। अब्बड़ दुख म चिल्हर पायेन। बाकी सब साग सालन ले के, भैया बस चवन्नी भर बंचाय रहे । तभे मोला कथे- “धनिया पान एक लेये बर हे गा, चल तो देखीं कहूं अंगत आऊ । खोजत-खोजत एकझन आऊ मल्लिन पसराम पहुँच गयेन । हमर धनिया पान के खोजाई हर अइसन रहे जइसन हांथ के अंगठी ले सोन के मुंदरी हर गवां गये हे, बस पसरा ला निटोर-निटोर के देखत धनिया ला खोजत रहन आऊ बतियात रहन। भैया कहत रहे- “देख भाई, इ कोचनीन मल्लिन के साग झनीच लेबे, येमन का पसरा करे आथे ? गहिरा देखे आथें, अतेक सज-संवर के, ओकरे बर कस के दाम ला लेथें ।” चवन्नी ला हेर के भैया मोर अंगत ला देखत गोठियात चार आना के धनिया पान दे कहत, मल्लिन अंगत चार आना ला फेंके देथे। मल्लिन-धनिया पान लाधरा देथे, हमन दूनो चले लागेन त मल्लिन कहिस- “ह गा ये- पइसा ला दे, धनिया पान ला लेके कहां जाबे ?” भैया कथे- “देहे त हों ओ।” गोठबात म महुं सुरता नी करें की भैया ओला पइसा दे हे, की नीहिं । मैं दूनों के मुहुं ला देखत हो, मल्लिन रिस म अगियात रहे आऊ भैया घरी-घरी ओला कहत हे तोला देहे तो हौं ओ, मल्लिन मानबे नी करत रहे। आऊ चिचिया-चिचिया के गोठियात रहे, बजार के अवइया-जवइया मनखे मन हमन तीनों ला देख के मुस्कीयात रहें । हल्ला बाढ़त रहे, मल्लिन ह पेच देय कस करत रहे, भैया भी गुंगवात रहे आऊ मोला हो जात रहे मरन । महुं घलो चार आना नी धरे रहों। दू चार झन आऊ आगिन, मल्लिन के ताव आगे, मल्लिन कोंघर के जब उठिस त ओकर भीतर ले चार आना हर बद ले गिरिस, भैया झट कहिस- “देख ओ दे गिरगे न मोर पइसा हर। लबरा बनाथे मोला, लबरी नी त।” कंहत मोला आगु निकरे बर धकियाते । ओ चवन्नी के गिराई ला देख के मोर हांसी मनखे चमक जाय कस निकरथे, मल्लिन के जी कड़क जात रहे, भड़वा कामा-कामा पइसा ला मेलथे। देखइया मनखे मन के हँसाई म पेट हर फुल जात रहे।
होइस का – जब हमन गोठियाये म मगन रहेन त जवन्नी ला धनिया दे कहिके भैया ओकर आघु म फेंकिस, मल्लिन घलो मगन रहे ओ साला चवन्नी सीधा ओकर लुगरी के फेंटा म, जोन हर कनिहां ले माड़ी तक- लपटाय रथे, ओई म अलकरहा फंसगे आऊ दूनो ला पता नी चलिस । ओई हर झगड़ा ला बढ़ाइस।
हमन ओकर ले आऊ आघु अंगत निकर गयेन। भैया के आंखी मोर हांथ अंगत गिस, अतका ले हमन एक झन बुढ़िया के पसरा तीर आ गये रहन। बुढ़िया नवा डलवा मुंगफली ला भूंज के चार-चार आना के गाटा करके बइठे रहे। डॉ. भैया ला चरबनी खाय के अब्बड़ सऊंक, मुंगफली ला देख के तो इसने बखत म ओकर जी आऊ नी माने, लेकिन का करिहा, पइसा नीये खीसा म। मुंगफली ला देख के मोला कथे- “भाई, पइसा राखे हस का ?” मैं कहें- “मैं तो सुरू ले कहे हों, मोर खीसा फटहा ये, नी धरे हों।” ओकथे- देखत होहि । मुगफली खाय के मन लागथे गा, जब नीहिंच कहें त एक घड़ी ले डोकरी के मुहूं ला देखत खड़े हन। बुढ़िया हमर गोठ-बात ला सुन के डरात रहे-की ये बैरी टूरा मन मुंगफल्ली ला लुटहीं त नीहिं आऊ खोस खोस ले बइठ जात रहे । हमन जइसन आघु अंगत बढ़बो कहत पाँव ला बढ़ायेन की भैया कथे-काय धरे हस थैला म। मोरो सुध आइस के मैं- थैला ला बोहे हों। भैया थैला ला देखथे। मैं कहें-यहर मोर नी होइस,सिदार जी के चना ये। तभे काय करथे-थैला ले एक ठोम्हां कस के चना ला- हेर के बुढ़िया तीर जाथे आऊ कथे- डोकरी दाई, चना के बदला मुंगफली देबे का ? डोकरी के मन कुलकित होगे। चना ल ठोम्हा भर देख के झट ओंटी ला हेर देथे। भैया चना ला ओकर ओंटी म डार के एक गादा मुंगफली ला आपन के ढीला कुरता म जेबिया लेथे ! मैं अकबकाये- कस डोकरी आऊ भैया ला देखत हों, कछु नी कहें चना के हेरत ले आऊ मूंगफली के लेवत ले। तभे कथे- रिसाहा त नी होय, मोला सुरता आगे, बिहान ले सिदार संग कमिहां कस बुलाई के। मैं कहे नीहिं । मनेमन गूनत रहों-ठीक होइस, साला मोला भूथियार कस किंदारत रहिस। ठीक-होइस चना के बदला म मुंगफली त पायेन ।मिलिस भूती।
दूनोझन एक-एक ठी मुंगफली ला फोकलत-बाजार ले बाहिर घर अंगत निकरेन । सिदार जी मोर डहर देखत साइकिल के तीर म खड़े रहें। ऊँला देख के दूनो हमन हांस भरेन। थैला ला धरा के कहें-सिदार जी अब मैं जाथों, सिदार जी साइकिल म थैला ला झुलात अपन गाँव डहर रेगिंन आऊ हमन साहित्य चर्चा करत घर कोती।
.रामलाल निषाद.
– केंवटा पारा
रायगढ़ (छ.ग.)