आज सुभाष बताईंन के उनखर बबा मनबोध छत्तीसगढ़ के नांदघाट भांठापारा मेर ले असम गे रिहिन। उँहा ओमान कुछ बच्छर रिहिन फेर लहुट गए। अउ सुभाष के बूढ़ी दाई बड़े ददा अउ पिताजी असम म ही रही गे। बबा फेर आखिर तक इन्हें रिहिन अउ उंखर फौत घला इन्हचे होये रिहिस। सुभाष एहू गोठ ल बताइस के ओ हर खोज-खाज के पता लगाएं है के उंखर समाज ल छत्तीसगढ़ म गांडा, गंडवा या गंधर्व के नाव ले जाने जाथे।
ए समाज के उप्पर सुभाष ह नेट ले जऊन जानकारी पाए हे ओ सब ओडिशा के गांडा मन के बारे म हावय अउ ओ हर छत्तीसगढ़ के गंडवा मन उप्पर जानकारी खोजत हे। ओ एहू पता कर डारे हावय के ओखर समाज के मनखे म कपड़ा बुने के बूता करय। मैं जब केहेंव के बाज़ा घला बजाथें तव बताइस के ओखर बबा दफड़ा बजावय अउ ओखर मेर एक ठन दफड़ा घला रिहिस जाऊन ल बबा के गुज़रे के बाद ओ मन नंदी म सरो दिन।
में केहेंव के आप ल छत्तीसगढ़ी नई आवय, अपन जगह ठौर, नाता गोता कुछु ल नई जानव तभो ले अतेक बेचैन काबर हावव। सुभाष के उत्तर बहुत मार्मिक लागिस “छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी मेरी पहचान है, मेरी अस्मिता है, अपना गांव और कुटुम्ब नही जानने के कारण अधूरा लगता है, इसलिए मुझे हर हालत में अपने गांव और रिश्तेदारों को ढूंढ निकालना है, उसके बाद ही अच्छा लगेगा, बिना जड़ के वृक्ष कैसे जीवित रह सकता है। पूर्णता तो जड़ के बगैर नही हो सकती न।”
में बहुत सम्मान के साथ सुभाष के भावना ल आदर देवत हावव अउ अपन आप ल समझाए के कोसिस करत हवव के मोर भाषा, मोर संस्कृति, मोर गांव ये सब मन के बिना मोर पहिचान अधूरा हाबय।
–अशोक तिवारी