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दादूलाल जोशी ‘फरहद’ के छै ठन कविता

दू डांड़ के बोली ठोली

1.
हिरदे म घात मया ,
आंखी म रीस हे ।
फागुन के महिना म,
जस फूले सीरिस है।।

2.
सुघ्घर – सुघ्घर दिखथे ,
जस मंजूर के पांखी ।
कपाट के ओधा ले ,
झांकत हे दू ठन आंखी ।।
3.
अंइठे हावस मुंह ल ,
करके टेंड़गा गला ।
करंग गेहे अंगरा,
भीतर म पलपला ।।
4.
बाहिर ले बइरी असन ,
अन्तस म मितान ।
अइसन म डर लागथे ,
कइसे के गोठियान ।।

सुम्मत के गोठ

सुम्मत के तुम गोठ करौ ,
अब का रोना ल रोहू जी ।
कइसे पाहू बने फसल ल ,
जब बदरा ल बोहू जी ।।

सबो के मत ह छितीर बितीर हे,
हंसी तर म परे हवन ।
एके रद्दा म जाये ल छोड़ के ,
अलग अलग रद्दा धरे हवन ।।

आगू पाछू टिरटिराये ल भिंदोल के,
का सरग ह टूटही जी ।
कइसे होही सुभाग के बरसा,
बिपत के भोंड़ू फूटही जी।।

पूजा म चढ़ी जभे परसाद ह ,
घी गुर म पिसान ल मोहू जी ।
तभे मिलही पुन्न के फल ह ,
एक्का सब भई बहिनी मन होहू जी।।

अब तो कुचरौ जात पांत ल ,
ये अजगर असन लीलत हे ।
हमर सुलाह के सुघ्घर बन म,
ठउर ठउर म मिलत हे ।।

हमर एके जात हे , हम ,
मनखे छत्तीसगढ़िया आन ।
सदा मयारूक बांट के खवईया,
बेटा भारत के बढ़िया आन ।।

सोये के रतिहा जम्मो पहागे ,
जागे के दिन म का सोहू जी ।
अब तो चेत करौ ग भईया ,
नई ते पाछू तुमन रोहू जी ।।

सुम्मत के ताकत ल पहिचानौ,
गोबरधन ह छत्ता बने रिहिस ।
मंय हारेंव तंय जीते कन्हैया ,
इन्द्र ह आके कहे रिहिस।।

सुम्मत के गुन ह भरे हवय ,
नवा जुन्ना जम्मो कहानी म ।
देवता दानों रतन निकालीन ,
बिलो के सागर पानी म ।।

खींच तान म झन काम बिगाड़व,
करम के पथरा फोरहू जी ।
नहाहू तुम सुफल के पानी म,
आंसू म काबर मुंह धोहू जी ।।
-0000-

अलकरहा होगे
संगी मन जम्मो लपरहा होगे।
चाल ह उंकर हरहा होगे ।।
ताते तात गोठ के पसिया,
पीके हिरदे घलो जरहा होगे ।।
हमर खेत म जागे पौधा ,
दूसर मन बर परहा होगे ।ं
दाई के साध ह साध रहिगे,
बेटा जम्मो लरहा होगे ।।
एती ओती जे उंडत रहिथे,
हिरदे उंकर अजरहा होगे ।।
अब तो चेंत करे ल परही,
सम्मे घलो अलकरहा होगे ।।

संझौती बेरा

देंह ल डार के
सतिया ल मार के
कमरा ओढ़े
कोठा म
अंजोर लुकागे
संगी हेवत हे मुंधियार।
बरदी ह आगे
नांगर ह ढिलागे
पागा बांधे
घर म
नगरिहा अमागे
सुन्ना परगे खेत खार।
संगी होवत हे मुंधियार।।
सुरता ल करके
सन्सो म परगे
मशाल धरे
अंगना म
हांसत बनके
आगे चंदा बनिहार।
संगी होवत हे मुंधियार।।
धुंगिया ह घर के
गली म टरके
धुर्रा चुपरे
खोर म
लइका मन आके
पारत हें गंज गोहार।
संगी होवत हे मुंधियार।।
–000–

जेठ के घाम
जेठ टोनहा
रंग सोनहा
टोके कोन हा
गली म भुर्री बारे हे।
चारों खूंट उंजियारे हे।।
जांगर जरथे
बनखर मरथे
ये अति करथे
जस पलपला म कांदा डारे हे।।
चारों खूंट उजियारे हे।।
झेंगुरा धोखिहा
झांझ परलोकिहा
जुरमिल के इंहा
कइसन कंझट पारे हें ।
चारो खूंट उजियारे हे।।
बिलवा बादर
एक मन आगर
कोजनि काबर
कते डाहर मुंख ल टारे हे।
चारो खूंट उजियारे हे।।
भुईंया ह फाटे
जस छुरी म काटे
येला कोन ह पाटे
fभंभोरा घलो मुंह ल फारे हे।
चारो खूंट उजियारे हे।।

बसंती (फगुवा बिम्ब)

पींउरा रंग के
नवा लुगरा पहिरे
मोटियारी टूरी
आगू आगू करत हे
मंझेरा म मुलुल मुलुल
मटकत हे
ठुमकत हे
खंधेला ल
डेरी जेवनी गिरात चढ़ात हे
सब्बो झन के सुघ्घर
पाटी पारे केंस ल
उझारत हे घेरी बेरी
(रूख रई मन पाना झर्रावत हें)
गुदगुदी कर देथे
कतकों के मन म
तेला देख के
परोसिन चैती डोकरी
गजब खिसियाथे
गारी देथे – निर्लज्ज! नंगनांचन!
दुएच्च महिना हे
ओकर बाद
रहि जाबे मन के ठस्सा
ओ बसंती!
चेंतबे तंय ह
बैसाखू नई ते
जेठू दुलहा
बिहा के ले जाही
आंखी म
बरसात उमड़ही तब!!
–000–
– दादूलाल जोशी ‘फरहद’

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