Categories: कविता

पंच-पंच कस होना चाही

पंच पंच कस होना चाही,
साच्छात परमेस्वर के पद,
पबरित आसन येकर हावै,
कसनो फांस परे होवे,
ये छिंही-छिंही कर सफा देखावै।
दूध मा कतका पानी हे,
तेला हंसा कस ये अलग्याथे।
हंड़िया के एक दाना छूके,
गोठ के गड़बड़ गम पाथे।।
छुच्छम मन से न्याव के खातिर,
मित मितान नइ गुनै कहे मा।
पाथै ये चरफोर गोठ म,
कला छापाना है का ये मा।
एकरे बर निच्चट निमार के,
बढ़िया बीज बोना चाही।
पंच-पंच कस होना चाही।
पंच चुनाई करत समे मे,
रिस्ता नता मया झन देखा।
चाहे अनबन भले हमर हो,
फेरबोलिक के करव सरेखा।
ताह दिन ले ये पंच रहिन,
श्री रामचंद्र गद्दी के मउका।
कहिन बसिस्ठ तिलक तव करिहा,
जब पंचन ला लगही ठउका।
ऐतो बात रमायेन के अय,
अंड़हा अउ सुजान सब जानै,
पंचइती परबंध पुराना,
ये ला कोन हर कब नई मानैं?
गूंड़ी मा महमाई चौंरा,
जुरिन जबर झंझट सुरझाथें।
तुरते ताही निरनै करथे,
कोनो कसनो ओरहन लाथें।
सबला सच्चा न्याव मिलय,
अपने अपने मा का बनावैं।
अइसन गुन के गांव-गांव म,
पंच के पंचइती करवावैं।
एला बनावा तुंहर हाथ मा,
खेलवारी झन करिहा नइ तो
अपने हाथ गड‌्ढा खनके,
आप सवांगे मरिहा नइ तौं।
येकरे बर चिन्ह बने पेंड़ मा,
पानी खूब पलोना चाही।
पंच-पंच कस होना चाही।

श्यामलाल चतुर्वेदी
तिलकनगर, बिलासपुर

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