हमर छत्तीसगढ़ी म एक ठन हाना हे ‘ढोल तरी पोल अउ मशाल तरी अंधियार’ व्यंग्य लेखक मन इही अंधियार अउ पोल ला देखके व्यंग्य लिखथे। जेला पढ़के पढ़इय्या मन कहिथे, ‘गजब मजा आइस अउ हांसी लागिस।’ फेर एक ठन बात ऊपर ध्यान देना बहुत जरूरी हे। व्यंग्य लेखक फकत हंसाय बर कभू रचना नइ करय अउ कोन्हों हंसवाय बर रचना करही तब जोक्कड़ अउ लेखक म काय अंतर रही जही। व्यंग्य लेखक अपन आंखी ला खुल्ला रखके चारों मुड़ा घर, गांव, समाज अउ देश-विदेश म घटत घटना ला जगजग ले देखत रहिथे अउ कान ला टेर के सब्बो कहइय्या मन के गोठ-बात के आरो लेवत रहिथे। तब घटना के पाछू मं लुकाय विसंगति अउ विषमता ल पकड़थे अउ अपन अंतस के पीरा ल शब्द बनाके कागद म उतार देथे। जउन शब्द ह अपन गहरी अरथ म बने अउ गिनहा के भेद ला बतावत सब्बो ला समझाथे अउ सोज रद्दा म चले के सीख देथे। बड़े-बड़े सभा संगोष्ठी म हमर सियनहा कवि लेखक मन संसो करत कहिथे कि छत्तीसगढ़ी म बने पोठ गद्य रचना नइ आवत हे। नावा लिखइय्या मन चेत लगाके सुनव अउ रचना करव। छत्तीसगढ़ी म गद्य व्यंग्य के लिखइय्या वइसे भी निचट कम हे। तब अइसना बेरा म कृष्ण कुमार चौबे के छत्तीस व्यंग्य ‘लदफंदिया’ हमन म आशा जगाथे कि ये किताब ह छत्तीसगढ़ी गद्य व्यंग्य साहित्य ला पोठ करे म जरूर सहायक होही।
किताब म चौबेजी ह अपन पच्चीस ठन रचना ल समोय हावे। जउन ह नाटय शैली, आत्मकथात्मक शैली अउ पत्र लेखन शैली म लिखे गे हावे। वइसे तो ये रचना मं जिनगी के सबो किसम के विसंगति ऊपर लेखक अपन कलम चलाय हे, फेर परमुख रूप ले भ्रष्टाचार, महंगाई अउ गरीबी ला लेखक अपन केन्द्रीय विषय बनाय हावे। सबो रचना ला बने चेत लगाके पढ़े के बाद स्पष्ट रूप म कहे जा सकथे कि ये रचना मन म आम आदमी के अन्तस के पीरा के गोहार सुनात हावे।
बाढ़त भ्रष्टाचार अउ अपराध ल देखके लोगन कहिथे कि कानून ला कठोर होना चाही। फेर लेखक के मानना हावे कि राजनीति के सुधरे बिना कोन्हो के सुधरे के गुंजाइश नइहे। एक बानगी देखव-
‘खाकी म सुधार के जरूरत नइ हे संगी हो। खादी वाले खोखी (बगुला) हर कहूं सुधर जही त खाकी, लाली, करिया, पिंउरा, सबे सुधर जाही’ (ये होके रही)।
आज सुरसा कस बाढ़त महंगाई म हलाकान आम आदमी के अंतस के पीरा ह लेखक के ये दे रचना म साफ दिखथे हे, देखव-
पहिली भगवा खोली म पूजा करन ता माई पिल्ला दू ठन अगरबत्ती बारन, फेर अब तो ओकरो रेट म आगी बरगे हे। तेकर सेती अब महीना म उद्बत्ती के एक ठन मोटहा पाकिट ल लानथौ अउ जम्मो काड़ी मन ला दू-दी कुटा कर-करके राखत जाथौ। घर के माई पिल्ला जब अस्नान कर लेथन, तब अगरबत्ती के एक ठन आधा काड़ी ला बार के संघरा पूजा करथन। काय करबे? (हाय रे महंगाई कनिहा टूटगे ददा)।
भाखा बिना व्यंग्य ह भोथरा हो जथे। भाखा ह सोज रद्दा म रेंगाय बर कोचकथे अउ पीरा ला कम करे बर गुदगुदाथे घला। भाखा के सुग्घर परयोग ये दे रचना म देखव- ‘तुम्हारे स्वीमिंग पूल म तउरने के लिए लबालब पानी भरा है अउ हमारे आंखी में रोने के लिए तक पानी नहीं है।’
अइसनेच एक ठन अउ बानगी-
‘मोर ऊप्पर डेंगू जर ह अइसे चढ़े हावै, जइसे डोर ऊपर डंगचगहा, भइंसा ऊप्पर भिंदोल, पेड़ के फुनगी म पतरेंगवा छोकरा, अउ फाहू टूरा मन ऊप्पर विदेशी फेशन चढे रहिथे।’ (बूढ़ी दाई ला चिट्ठी)
भाई चौबेजी ह ये किताब म खोज-खोज के छत्तीसगढ़ी के नंदावत शब्द अउ हाना मन के ठौर-ठौर म बड़ा सुग्घर प्रयोग करे हावे। जइसे ‘घर बर दीया नहीं, घोड़सार बर दीया’, ‘अपने जांघ उघारे अउ अपने लाजन मरे’, ‘भरे ल भरे अउ दुच्छा ला ढरकाय’ ये किताब म भाटी के सुगंध अउ भाखा के मिठास के संगे-संग शिष्ट हास्य अउ अव्यवस्था ऊपर करारा व्यंग्य हे। कहूं-कहूं ठउर म जादा हमेरी के चक्कर म हास्य ह हास्यास्पद घला होगे हे। फेर कुल मिलाके कहे जा सकथे ये किताब ह पठनीय अउ संग्रहणीय किताब हावै। संग्रह प्रकाशन बर लेखक भाई चौबेजी ह गाड़ा-गाड़ा बधाई के हकदार हे, बधाई।
वीरेन्द्र ‘सरल’
बोड़रा मगरलोड
किताब के नाव- लदफंदिया
लेखक- कृष्ण कुमार चौबे
प्रकाशन- सविता प्रकाशन दुर्ग
कीमत- 50 रुपिया
समीक्षक- वीरेद्र ‘सरल’