पुरवाही चलय सुरूर-सुरूर।
रूख के पाना डोलय फुरूर-फुरूर॥
हाथ गोड़ चंगुरगे, कांपत हे जमो परानी।
ठिठुरगे बदन, चाम हाड़।
वाह रे! पूस के जाड़॥
गोरसी के आंच ह जी के हे सहारा।
अब त अंगेठा कहां पाबे, नइए गुजारा॥
नइए ओढ़ना बिछना बने अकन।
रतिहा भर दांत कटकटाथे, कांप जाथे तन।
नींद के होगे रे कबाड़।
वाह रे! पूस के जाड़॥
बिहनिया जुवर रौनिया बड़ लागय नीक।
घर भीतरी नई सुहावय एको घरिक॥
चहा गरम-गरम पिए म आनंद हे।
सुरूज के निकले बिना, काम बूता बंद हे॥
सेटर अऊ साल के नइए जुगाड़।
वाह रे! पूस के जाड़॥
लइका, जवान, टूरा सबोके खेलई कुदई हे।
डोकरी-डोकरा के त करलई हे॥
परान ल बचाय के कर लव उदम।
खावव, पिवव डट के, नइए कोनो गम॥
कसरत व्यायाम करव धोबी पछाड़।
वाह रे! पूस के जाड़॥
गणेशराम पटेल
ग्रा. व पो. बिरकोनी
2 replies on “पूस के जाड़”
पूस के जाड़ के मितानी अच्छा होते , संजीव भाई।
अच्छी रचना। बधाई।
आपकी कविता पढकर अंगीठी – गोरसी की यद् आ गयी | मज़ेदार कविता है…
-श्रीमती सपना निगम