को नों भी सुग्घर अउ महान फिलीम म या कहन कि जनप्रिय अउ मनप्रिय फिलीम म साहित्य के इसथान कहूं न कहूं जरूर रहिथे अउ कोनो फिलीम म साहित्य हे त निश्चित रूप ले वो महान कृति बन जाथे।
हम बालीवुड के गोठ करन तब तो अइसन बड़ अकन फिलीम हा जुबान म आ जाथे, लेकिन जब हम छालीवुड माने छत्तीसगढ़ी फिलीम के बात ल लाथन त एक दू ठन फिलीम ला छोड़के अउ मोला फिलीम नइ दिखय जऊन म कोनो भी रूप म साहित्य के दर्शन होथे। साहित्य समाज के दरपन होथे अउ फिलीमकार मन इही दरपन ला टोर-फोर के सत्यानास कर देथे ये ऊंखर मन के सबले बड़े नदानी आय जउन एला अपन फिलीम म इसथान नइ देवय इहां तक देखे म मिलत हे कि फिलीम के नामकरन तको म साहित्यिक नई राहय अरे भई कम से कम नांव ल तो बने राखतीन। एक मन फिलीम निरमान के दूसरइया चरन माने ‘छइहां-भुइयां’, ‘झन भूलौ मां बाप ला’, ‘मयारू भौजी’, ‘मोर संग चलव’ जइसन फिलीम के शीर्षक हा बड़ दरसक ला अपन डाहर तीरथे। फेर अब देखथन कि अतेक अकन फिलीम हा आवत हे। आवत तो हे, फेर कोनो भी फिलीम हा अपन नांव संग तालमेल नइ बइठा पावत हे। पूरा नाव हा अन्ते-तन्ते रखावत हे। एक लेखक के किताब के शीर्षक ले ही वो लेखक के किताब के अनुमान लगाए जा सकत हे। अनुमान न सही, फेर कम से कम पेज ल पलटाये जा सकत हे। ठीक उही परकार ले एक फिलीम के नाव ले दरसक टिकीस बिसाके टाकीज के भीतर तो जा सकत हे। बाकी हा फिलीमकार के प्रस्तुति हे कि वो हा अपन फिलीम म कतेक दरसक ला तीर सकत हे अउ कतेक बेरा तक दरसक ला बइठा सकत हे। फिलीम म साहित्य के दखल होना जरूरी हे। बने भासा, परम्परा अउ समाज के वर्तमान परिदृश्य ल चित्रित करना घलो जरूरी हे। एक फिलीमकार ल ये बात ल जरूर सोचना चाही कि वोमन दरसक ल जादा दिन तक बइकूफ नइ बना सकय। नेता मन पांच साल म बदल जाथे। अउ दरसक के आंखी म धुर्रा छिंचइया फिलीमकार मन एक नजर म। एखर सेती छत्तीसगढ़ी फिलीम उद्योग म अभी सुग्घर ईमानदारी के प्रस्तुतिकरण जरूरी हे अउ बने साहित्य के संग म।
चम्पेश्वर गोस्वामी