आज बादर बड़ बरसही,जाम कस करियाय हे।
नाच के गाके मँयूरा ,नीर ला परघाय हे।
भर जही अब ताल डबरी,एक होही खोंचका।
दिन किसानी के हबरही, मन भरे ये सोच गा।
ढोड़िया धमना ह भागे,ए मुड़ा ले वो मुड़ा।
साँप बिच्छू घर म घूँसे,डर हवय चारो मुड़ा।
बड़ चमकथे बड़ गरजथे,देख ले आगास ला।
धर तभो नाँगर किसन्हा ,खेत रचथे रास ला।
देख डबरा भीतरी ले, बोलथे बड़ मेचका।
ढेंखरा उप्पर चढ़े हे , डोलथे बड़ टेटका।
खोंधरा जाला उझरगे,रोत हावय मेकरा।
टाँग डाढ़ा रेंगथे जी,चाब देथे केकरा।
तीर मा मछरी चढ़े तब,खाय बिन बिन कोकड़ा।
पार मा खेले गरी मिल, छोकरा अउ डोकरा।
जब करे झक्कर झड़ी सब,खाय होरा भूँज के।
पाँख खग बड़ फड़फड़ाये,मन लुभाये गूँज के।
हालथे पूर्वा म सुघ्घर,देख हँरियर घास हा।
बात भुँइया ले करत हे,देख नाँगर नास हा।
खेत मा रंगे दिखत हे,सब किसानी रंग मा।
भात बासी जोर गेहे ,लोग लइका संग मा।
जीतेन्द्र वर्मा”खैरझिटिया”
बाल्को(कोरबा)
बहुत सुंदर गीतिका छन्द
पायलागी गुरुदेव
बड़ सुग्घर गीतिका छंद
धन्यवाद तिवारी सर जी,
गुरुदेव,पायलागी।