बसंत ल देखे बर सिसिर लहुटगे

सिसिर रितु, पतझड़ ल न्यौता दिस ‘आ अब तैं आ मैं दूसर जगह के न्यौता म जात हावंव। तोला इंहा बसंत के आय के तइयारी करना हे। प्रकृति ल अइसे संवार दे के बसंत आके देखय त नाचे ले लग जाय।’ भौंरा, तितली, कोयली सब कान दे के सुनत रहिन हे। पतझड़ ह जझरंग ले कूद परिस आमा के डारा म।
आमा के रंग, रूप ल संवारे बर कुछ तो करना हे, ये सोचत पतझड़ ह ओला धियान लगा के देखिस। सिसिर कहिस ‘चल मैं चलत हावंव, तैं सब ल तइयार कर बसंत के सुवागत बर’ चारो डाहर पतझड़ जुन्ना पाना ल गिरा के नवा पाना आए बर पेड़-पौधा ल तइयार करे ले लगगे। सरसों के कान म जाके कहिस के तैं पिंवरा चादर बन जा। टेसू-पलास बनगे सेंदूर। पतझड़ अइसे सब पाना ल झंडा दिस जेन ह बूढ़ा गे रहिस हे, जेन ह प्रकृति के सुन्दरई ब बाधा बनत रहिस हे। पतझड़ के काम म तेजी आगे पतझड़ प्रकृति के कान म कुछु कहिस, कुछु गुनगुनाइस अउ प्रकृति सज गे।
चारों डाहर गुलाल, चम्पा, चमेली, जूही, कुंदा, गेंदा के खुशबू बगरगे। चारों डाहर अइसे सुगंध बगरिस के तितली, भौंरा नाचे ले लगगे। भौंरा तो गाना गाए ले धर लिस। ये सब ल देखत रहिन हे पतझड़ के झर्राए पाना के आंखी मन। ये सब ल देखके ये कली मन बाहिर आगे। सब झाड़-झगाड़ म नवा पाना नवा फूल निकलगे।
ये साल येखर सुन्दरई अइसे रहिस हे, के बादर लहुट के आगे देखे बर। अपन आप ल रोक नई सकिस बरस परिस। पतझड़ के विनती सुनके लहुटिस। जात-जात बादर ह सिसिर ल प्रकृति के सुन्दरई ल बतईस त सिसिर घलो सोचिस, एक बछर तो मोला प्रकृति के सुन्दरई ल देखना हे। कइसे वो ह बसंत के सुवागत करथे। सिसिर लहुट के अइस अउ रमगे। पतझड़ कहिस कइसे, तैं तो मोला सुवागत करे के तईयारी करे बर कहिके गे हावस अउ लहुट गेस। सिसिर कहिथे, बसंत के आय के पहिली ये प्रकृति जेन रंग बिखेरथे तेन ल देखना चाहत रहेंव। मोला तो जाय के मन नई लगत हे।
पतझड़ ह घबरा गे। मोर तो बुता बाढ़गे। अतेक पेड़-पौधा मन ल चमकाय रहेंव। नवा पाना, नवा कली आए के लगगे। तेन ल ये सिसिर अउ नुकसान पहुंचाही। मोला फेर येला संवारे बर परही। सिसिर कहिस नहीं मैं कुछु नई करंव, तोर बुता नई बढ़ावंव। मैं अब जाहूं। अतके म बसंत आगे। बसंत कहिस मोर अउ प्रकृति के तो अइसना संग हावय के पूरा बछर प्रकृति मोर अगोरा करथे। थोरिक बेरा तहूं मन देख सकत हावव फेर जब प्रकृति ऊपर जब मोर रंग चघही तब तो तुमन रहि नई सकव अपन आप हवा ह तूमन ल दूरिहा दिही।
ये गोठ बात चलत-चलत सही म बसंत प्रकृति म अइसन रंग चघाइस के प्रकृति एक दुल्हन के रूप ले लीस। सरसों के पींवरा फूल के चादर बीछे चना तिंवरा के हरियर छिटा। चमेली जूही के गजरा लगाय टेसू पलास के मांग भरे प्रकृति रंग बिरंगा लुगरा पहिरे अइसे लगत रहिस हे के सब चिरई-चिरगुन, जीव-जंतु अउ मनखे के मन ल मोहत रहिस हे। सिसिर पतझड़ सब चल दिन। अब तो बसंत अउ प्रकृति के आंख मिचौली ल देख के कोयल कूके ले लगगे। बिला म खुसरे सांप, बिच्छू, मुसुवा सब बाहिर आय के तइयारी म लगगे। अइसन मनमोहना बसंत ल देखे बर सिसिर ह घलो लहुटगे। प्रकृति के नियम उलटा होगे।
सुधा वर्मा
संपादक मड़ई
देशबंधु, रायपुर 

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