गोठ कई रंग के होथे, सोझ-सोझ गोठ, किस्सा कहानी, गोठ, हानापुर गोठ, बिस्कुटक भांजत गोठ, बेंग मारत गोठ, पटन्तर देत गोठ, चेंधियात गोठ, हुंकारू देवावत गोठ, ठट्ठा मढ़ावत गोठ, मसखरी ह मसखरिहा गोठ आय।
येहू ह मौका कु मौका म काम देथे। केयूर भूषण जी ह येला एक अलग विधा के रूप म स्थापित करे हावय। मसखरी ह व्यंग्य विद्या ले थोरक अलग हावय। जब अइसे लागथे के मोर गोठ म सुनके आगू वाला ह मंतिया झन जाय तब ठट्ठा मसखरी मढ़ावत सिरतोन के गोठ ल गोठिया ले। अब तो ओ ह तोर गोठ ल सुनके तोर ऊपर नई मंतियाहय। ये गोठ ओखर करेजा भितरी बरोबर उतर जहय। अउ कहूं मंतियाय असन करही तब ओसेट जउन मनखे रहिही तेन मन झटकुन कहिही के ‘ये तो ठट्ठा मसखरी के गोठ ए जी।’
व्यंग्यकार गिरीश पंकज जी ह लिखे हांवय के रचनाओं को पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है, कि वे एक तरह से आधुनिक छत्तीसगढ़ गद्य के व्यंग्य साहित्य को ही संतुष्ट कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य में संभवत: पहिली बार हुआ है, कि किसी रचनाकार ने हिन्दी के व्यंग्य-विनोद के बरक्स छत्तीसगढ़ी में मसखरी को एक विधा के रूप में स्थापित की कोशिश की है। यह मसखरी के रूप में व्यंग्य की नई धारा प्रवाहित करने की कोशिश भी है।
‘देवता के भुतहा चाल’ म सहरी मानसिकता के बने मजाक उड़ाये गे हावय। येमा सहर के मन कहिथे हमन देवता असन रहिथन अउ तूमन भूत असन रहिथव।
गं वई के रहइया मन ल शहर वाले मन बहुत हिनथें। अपन ल देवता कईथे अउ गांव के रहईया मन ल भुतहा। मोर फुफुदाई शहर म रहय तेन ह अपन मईके आवय तव मोर दाई ल, जेन ओखर भऊजी ए, तेखर मेर बहुत ठट्ठा मढ़ावय। ते बखत कहय- ‘भऊजी तूमन गंवई म भूत बरोबर रईथव ओ’ बिहनिया ले घर लिपथव, कोठा गोर्रा के गोबर हेरथव, भंड़वा मांजथव, फेर पानी भरके, हंसिया धरे निंदे कोड़े बर जाथव। चिखला म सदबदाए रथव। कुटथव, छरथव, तब कहूं खाए बर पाथव। हम शहर के रहइया मन के न हांत मईल, न गोड़ मईल, छन-छन ले घर-दुवार, जेमा फर्रस के पथरा लगे। ओला न लिपेबर परय न अउंठियाए बर। झर-झर ले पानी म धो पोंछ ले। झक-झक ले दिखे लगथे उार। कूटे छरे के कामे नई रहय। बिसा के ले लान पईली भर चांउर। ओला एक पानी धो के सोझे ओईर दे। दगदग ले भात। थारी म निकाल के खाले परोसा-परोसा। नौकरिहा अस तव तैं अपन नौकरी ले दिन बुड़े के पहिली, डांभ भर बेरा रहिथे घर आजा। गिंजरे के मन होय तब गिंजर रह रात ले। सिनेमा देखे बर जा, के बगईचा म गिंजर ले। नहिंतव कोनो क्लब म जा के कोनो तोर मसखरी करे के नतादिष्टा होय के झन होय, ओला धकिया के ओखर संग धींगा मस्ती कर ले। तोला कोनो किसम के लवा-धक्का नई लगना ए। न तोला कोनो छेंकय न बरजंय। भंवरा असन एक फूल ले दूसर फूल सुंघत गिंजरत रह।
फुफु कहय- ‘शहर के रहइया मन देवता बरोबर रथन भउजी’ तुंहर सही गोबर चिखला म सदबदाए जिन्दगी नई पहावन। ऊंखर अईसना गोठ ल लईकई म सुनन, तब हमरो शहर जाए के मन होय। गुनन शहर के रहइया देंवता मन संग हमू दू चार दिन रहि लेतेन। कभू तो शहर देखे नई रहेन। अपन दाई सो शहर जाए के रटन लगादेन। कहेन दाई, ए दारी फुफु आही तेखर संग हमू शहर देखे बर जातेन ओ। दू चार दिन हमू शहर के देंवता मन संग रहिलेतेन। ते ठउंका तीजा पोरा लगाती फुफु अपन मईके ‘हमर घर’ आतो गय। तेह भाई दुईज के होए ऊपर ले अपन घर गेईस। तब हमू दाई मेर रेंधिया के फुफु संग ओखर घर शहर चल देन।
ठंउका मोटर ले उतरते शहर ल जगर-मगर देख के अकबका गेंव। चिंक्कन चांदन सड़क, बड़े-बड़े दुकान तेमन म रकम-रकम के जिनिस। कोनो म रिंगि-चिंगि ओढ़ना सजे। तब कोनो म नाना परकार के खाई खजेना। देखते ओखर डहर मन झिंकाएअस लागय। फुफु दाई संग, रकसा गाड़ी म बईठ के ओखर घर पहुंचेंव। आदमी ल बईठार के आदमी झिंकय अईसना गाड़ी म पहिली बेर बइठेंव। मैं तो गंवई गांव के रहइया। उहां बइला गाड़ी, भईसा गाड़ी, घोड़ा गाड़ी म चढ़े रहेंव। रक्सा गाड़ी म कभू नई चढ़े रहेंव पहिली तो मनखे फंदाए गाडी ऊपर बईठब म कनुवाएंव। फेर देवता मनके शहर के एही चलागत होही गुनके बईठबे करेंव।
मोटर के चढ़े ऊपर ले शहर के आवत ले कोनो मेर लघुशंका करे के मौका नई लगे रहिसे। घर पहुंचते मैं उहां कोलाबारी खोज लगेंव। कहां मिलय उहां कोलाबारी। तव फुफु मेर पूछेंव कोला कोन मेर हे फुफु मुतु लागथे। तब ओहा बताथे तोर गंवई गांव सही इहां कहां पाबे कोला-बारी बेटा- ‘ए दे खोली देखथस न तेही ह दिशा-मैदान के जघा ए। उहें जा। अउ ओखर बाहीं म खोली हे न, तेह नहाएं के कुरिया ए। उहां जा के हांत गोड़ धो लेबे। एला पखाना कथें अउ ओला नहानी कुरिया। कोनो किसम ले निपटेंव भाई, ओही कुरिया मन म।’
थोरके म दिन बुड़तहूं होगे आगी बारे के बेरा। तव मोर फुफु ओही पयखाना अउ नहानी के बाहीं के कुरिया म खुसर के आगी बारे के जोंखा मढ़ाए लगिस। ओही ओखर रंधनी कुरिया रहय। उहां कनिहां के आवत ले ऊंच पैठा जुगुत रहय। तेमा एक ठिक टिन के पाटा म दू ठक चक्की असर रहय। ओखर ले तिरियाती खाल्हे म माढ़े रहय अम्बा असन कोठी। तेमा ले एक ठन रबर के पोंगरी ओ पाटा म जुरे रहय। ते मोर फुफु ह दूनों चक्की अउ कोठी म लगे ओखर कान मन ल अईंठ के ओ चक्की मन म डब्बी कांडी ल बार के छुवादिस। तब दूनो चक्की ह, चुलहा कस, अउल बरे लगिस। तेमा के एक अउल म चांउर धो के चढा दिस अउ दूसर अउल म करइहा म तेल डार के साग भुंजे लगिस। ठंउका कहे रिहिसे फुफु दाईह ‘हांत मईल न गोड़ मईल। अंधना आगे, भात चुरगे’ तब गुने लगेंव सहींच म शहर मन म देवता मन बसथें। उनला चिखलाए के कामे नई रहय।
फेर हां, ओ बखत के ओखर एक ठी गोठ ह मोला भदेलिस ला गिस जी। ओह आय मोर फुफुदाई के बिगर हांत-गोड़ धोए, जे लुगरा ल पहिरे गांव ले आए रहय, तेने लुगना ल पहिरे के पहिरचे अलगा घलो ल नई उतारिस, सोझे खुसरगे रंधनी कुरिया म। उहां जा के रांधे ल धरलिस। मोला घिनघिनासी लागे लगिस जी। तहीं बताना ओही अलगा ल पहिरेंच के पहिरे, मुंढर घर म खुसरगे। परदे आड़ तोहे, रंधनी कुरिया अउ पयखाना के बीच म। कइसे उनला सुहाथे तेला उनहीं जानंय। गंवई गांव म अईसना करतिन तब उनला गांव भर के मनखे, थुवा-थुवा कर डरतिन। शहर आयं तब बांचगें।
रात होते फूफा संग बियारी करे बर बईठेंव। न हांत धोए बर कहिन न गोड़ धोए बर। न कोनो एक लोटा पानी लान के देइन। न पीढ़ा पानी भरिन। फूफा ह तो ओइसने के ओइसने पनही मोजा पहिरे के पहिरे खुरसी टेबुल म आके बईठगे। मोला शहर के देवता मन के सब गोठ अकबकउल लागथे संगी।
रात तो बने कटिस। मोर फुफु दाई मोला बेरहन लईका ले लाने हंव गनके, बने मया लगाके सुपेती संग मुड़सरिया लगाए, जाड़ झन पावय गुनके, बेलांकिट ओढ़ा के सुता दिस। मंजा के नींद परिस भाई। फेर मोर अपन गांव म भिनसरहा ले उठे के टकर रहय। गरूवा ढिल के दुहानी मन ल हटिया के चराए के मोरे बूता रहय। ते इहों भिनसरहा उठगेंव। फुफु घलो भिनसरहा ले उठ गेए रहय। ओखरो तो गंवईच के उपजन बाढ़न ए। भले ओटेम फूफा के नाक बाजत रहय। मोला जागत बईठे देख के फुफु कइथे- ‘तोर मन होय तब सड़क के जात ले गिंजरिया बेटा’ ते महूं शहर के सड़क ल देखे के मन करके निकरेंव। घर कुरिया मन ल नहंकत सड़क म आगेंव। तव शहर के सड़क म का देखथंव ‘हमर गांव कस इहां कोनो गाय-भईसी चराए बर नई निकरें। फेर तकतो झन माईलोगिन मन अउ सियान लोगन मन कुकुर के गर म संकरी बांधे ओला चराए बर निकले हें। अईसना कुकुर मन ल चरावत मैं अपन गांव म कभू नई देखे रहेंव।’
थोरके म कई झन ल दरबर जात देखेंव। तेमा के कोनो-कोनो तो दंउड़त रहंय। पहिली तो मैं डेर्रागेंव। कोनो के होबा जाबा तो नई लगे होहय। तेखर धांव आत रहिन होहंय। तेखर सेती दउंड़त लकर-धकर जात होहंय। तब ओही मेर एक झन गिंजरत रहय तेला पूछेंव- ‘का होगे हे जी, तेखर बर दंउड़थें।’ तव ओह मोर डहर देखके हांसथे अउ पूछथे- ‘तैं कोनो गंवई गांव ले आए हस का जी’ मोर हव कहे ऊपर ले कइथे- ‘शहर म सब झन अइसने हवा खाए बर टहले बर जाथें जी। अउ काम-बूता नई रहंय ते पा के कतको झन खाए रथें तेला पचोए बर दंउड़थें घलो।’
तव मैं गुने लगेंव ‘शहर म आए हंव तेन दिन ले मोरो काम बुता छुट गेए हे। दू चार दिन इहां रहि जहंव तव मोर पेटपीरी झन उठजय। मोला अब घर जाना चाही। गुनके मैं अपन फुफु सो कहेंव- ‘मोला मोटर म बईठार के गांव भेज देते फुफु इहां मोला अकबकउल लागथे।’ अपन गांव तीर म उतर जहंव। शहर के देवता मन के संग के रहई ह मोला भावत नई ए। इहां खेत न खार, न हमर गांव कस हवा- पानी, इहां तो मोला धंधाए अस लागथे। जादा दिन रहि जहंव तव बईठ के खवई म बीमार झन पर जांव। मोला शहर सुहात नईए।’
मोर फुफु दाई के मोटर म बईठारे ऊपर ले पहुंचगेव अपन गांव। अपन गांव अपने होथे। बड़ मेयारूक। मोर गांव मोला बिन्दावन अस लागथे। अतेक म मोर कान म ददरिया के टेही परे लगिस। गेवार के बांसुरी के धुन सुनाए लगिस। करमा, सुवा, पंथी के थाप ह मन ल झिंके लगिस। तव गुने लगेंव-‘मोर फुफु दाई ह मईके आथे तब अपन भउजी ल कुड़काए बर कथे ‘शहर बसे देवा नांग गांव बसे भूता नांग’ ते ह उलटा अस लागथे शहर देखे ऊपर ले।’
केयूर भूषण
(देशबंधु आरकाईव से साभार)