महतारी दिवस विशेष : दाई

दाई

(चौपई छंद)

दाई ले बढ़के हे कोन।
दाई बिन नइ जग सिरतोन।
जतने घर बन लइका लोग।
दुख पीरा ला चुप्पे भोग।

बिहना रोजे पहिली जाग।
गढ़थे दाई सबके भाग।
सबले आखिर दाई सोय।
नींद घलो पूरा नइ होय।

चूल्हा चौका चमकय खोर।
राखे दाई ममता घोर।
चिक्कन चाँदुर चारो ओर।
महके अँगना अउ घर खोर।

सबले बड़े हवै बरदान।
लइका बर गा गोरस पान।
चुपरे काजर पउडर तेल।
तब लइका खेले बड़ खेल।

कुरथा कपड़ा राखे कॉच।
ताहन पहिरे सबझन हाँस।
चंदा मामा दाई तीर।
रांधे रोटी रांधे खीर।

लोरी कोरी कोरी गाय।
दूध दहीं अउ मही जमाय।
अँचरा भर भर बाँटे प्यार।
छाती बहै दूध के धार।

लकड़ी फाटा छेना थोप।
झेले घाम जाड़ अउ कोप।
बाती बरके भरके तेल।
तुलसी संग करे वो मेल।

काँटा भले गड़े हे पाँव।
माँगे नहीं धूप मा छाँव।
बाँचे खोंचे दाई खाय।
सेज सजा खोर्रा सो जाय।

दुख ला झेले दाई हाँस।
चाहे छुरी गड़े या फाँस।
करजा छूट सके गा कोन।
दाई देबी ए सिरतोन।

बंदव तोला बारम्बार।
कर्जा दाई रही उधार।
कोन सहे तोरे कस भार।
बादर सागर सहीं अपार।

जीतेन्द्र वर्मा “खैरझिटिया”
बाल्को(कोरबा)

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