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गज़ल

मुकुन्‍द कौशल के छत्‍तीसगढ़ी गज़ल

चुनई के हांका परगे भईया बेरा हे तय्यारी के।
अटक मटक के नाचै बेंदरा देखौ खेल मदारी के ।।
गॉंव गँवई के पैडगरी हर सड़क ले जुर गेहे तब ले।
गँवई-गॉंव मॉं चलन बाढ़गै मधुरस मिले लबारी के।।
बोट के भुखमर्रा मन अपन गरब गुमान गॅवा डारिन।
इन्‍खर मन के नइये जतका इज्‍जत हवै भिखारी के।।
गॉंव के छेंव म भट्ठी खुलगे, धारो धार बोहा लौ रे।
पानी भलुक मिलै झन तुँहला, अपन-अपन निस्‍तारी के।
निरमल रहिस सियानी तेमां, राजनीति के हबरे ले।
घर-घर मा करखाना खुलगे, निच्‍चट गिल्‍ला-गारी के।।
ये हॉंसी के मड़ई मा संगी, कोन बिसाही पीरा ला,
चारो मुढा हाट लगे हे, आरूग चुगली-चारी के।।
मंदिर मा मुह देख के पूजा, खीसा तउल मिले परसाद।
खुद भगवान बेंचावत हे तो, का हे दोस पुजारी के।।
ये पहरो के खेल मा संगी, पारी आ गै जे मन के।
का गोठियाबे खेल-खेल दिन बोमन हमरो पारी के।।

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मया पिरित संग हॉंसै-बोलै, ओखर दिल दरिया हो थे।
जे हर मूंह फुलाए रहिथे, मन ओखर करिया हो थे।।
सिधवा मनखे सुख अउ दुख ला, फरिया के गोठिया देथे।
लेवना चुपरे कस गोठियावै, ते हर मिठलबरा होथे।।
पहिली घर के नेत मढ़ा ले, तेखर पीछू मिलकी मार,
मछरी उंखरे हाथ म आथे, जेखर तिर चुरवा होथे।।
करिया कपड़ा पहिरेकर अउ, झुलुप घलो छरिया के राख,
दारू पी के झूपै जे हर, वो पक्‍का बइगा होथे।।
एक्‍कड़-डिसमिल के मतलब, इन डेरा के मन का समझैं,
का जानै इन बसुंदरा मन, का रकबा खसरा होथे।।
कुरसी पा के नेता मन अउ, साहेब बाबू भईया मन
अपन ददा ला तक नई चीन्‍हें, तौ हमला पीरा होथे।
कटहल के पसरा म कौशल, मोल लिमउ के का करबे,
सबले चुरपुर होथे तेहर, नानेकुन मिरचा होथे।।

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तहीं बता ये कुदरा मन ला घर कहिथें
चिरहा-फटहा जठना ला बिस्‍तर कहिथें
बोलत खानी सोंच समझ के बोले कर,
बइहा मन बम्‍हरी के रूख ला बर कहिथें।
जियत बाप ला डेड कथें वो लेड़गा मन
जे मन अपन पुजेरी ला फादर कहिथें।
झिमिर झिमिर बरसिस ते का ब‍रसिस संगी,
ठाढ़ दमोरे तउने ला बादर कहिथें।
खरही ला राखे रहिथे रखवार असन
ब्‍यारा के वो रूंधना ला राचर कहिथें।
मुस्किल के दहरा म बूड़े मनखे ला,
जे उबार लै तउने ला ईस्‍वर कहिथें।
जिव हर बने जुड़ावै ‘कौशल’ जेखर ले,
अइसन बोली भाखा ल मंतर कहिथें।


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दिन अलकरहा लागत हावय

मन के मया नंदावत हावय।।
रेंगत रेंगत लगिस थकासी,
समे घलव सुस्‍तावत हावय।
पतरी चांटत हावय मनखे मन
कुकुर ह गंगा जावत हावय।
मिठलबरा, अब चेत के रहिबे
बेरा हर अंटियावत हावय।
सूपा धरे बिहिनिया आके
किरन ला परियावत हावय।
मन हर फींजे कस लागत हे,
कौशल पंहुचो गावत हावय।

मुकुन्‍द कौशल
एस.एम. 516,
पद्मनाभपुर, दुर्ग, छ.ग.

9 replies on “मुकुन्‍द कौशल के छत्‍तीसगढ़ी गज़ल”

माटी के महक हे अउ अंगरा के दहक हे कौशल जी के कलम आखर आखर म सबक हे ।

दण्‍डवत प्रणाम रचनाकार के…..

ati sundar. ye ghazale anuvaad sahit chhape to desh k hindi pathako ko bhi mazaa aaye. mujhe inkaanuvaad mil jaye to agale ank men chhapnaa chahoongaa.

sarala sharmasays:

Chhattisgarhi ke roop ma barhotari ho gis. Likhat rahaw bhi.
sarsatidai ke kripa barsat rahay hum pathakman bhijat rahibo.
Jay johar

आपके कलम में धार है, इसी तरह अपनी लेखनी से लोगों को जागते रहिये

मै जब ले होश सम्हालेव तब ले आपमन ल कवि के रूप जानत हव आपके रचना मोला सुघ्घरे लगते फेर ये गजलमन के झन पूछ मजा ल सिरतुन म

shakuntala sharmasays:

” दिन अलकरहा लागत हावय मन के मया नंदावत हावय ।” बहुत बढिया गज़ल लिखे हावस ग मुकुन्द भइया !

Pramod Baghelsays:

काहेक सुघर लागिस। ..

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