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कविता

रघुबीर अग्रवाल पथिक के छत्तीसगढ़ी मुक्तक : चरगोड़िया

छत्तीसगढ़ के माटी मा, मैं जनम पाय हौं।
अड़बड़ एकर धुर्रा के चंदन लगाय हौं॥
खेले हौं ये भुँइया मा, भँवरा अउ बाँटी।
मोर मेयारूक मइया, छत्तीसगढ़ के माटी॥

छत्तीसगढ़ मा हवै सोन, लोहा अउ हीरा।
हवैं सुर, तुलसी, गुरु घासीदास, कबीरा॥
हे मनखे पन, अउ अइसन धन, तबले कइसन।
चटके हवै गरीबी जस माड़ी के पीरा॥

कहूँ खेत के धान, निचट बदरा हो जाही।
नेता हर चितकबरा अउ लबरा हो जाही॥
का होही भगवान हमर अउ हमर देश के?
खाल्हे ले उप्पर तक ह खदरा हो जाही॥

भला करइया खावै गारी।
गरकट्टा मन खीर सोंहारी॥
हमर लहु ला चुहक चुहक के
लाहो लेवय भ्रष्टाचारी॥

रुपिया हर हरू होगे।
जिनगी हर गरू होगे॥
मनखे अउ मनखे के।
मया घलो करू होगे॥

हेलमेट लगाबो, मूड़ ला बचाबो।
बने बात बोले, सबला समझाबो।
सुन तो संगवारी, संसो हे भारी।
मूड़ी खजुवाही तो, काला खजुवाबो?

रघुबीर अग्रवाल पथिक
सेवा निवृत्त वरिष्ठ उप प्राचार्य
शिक्षक नगर, दुर्ग (छ.ग.)

आरंभ मा पढव : –
नवागंतुक ब्‍लॉगर शिरीष डामरे
छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य व जातीय सहिष्‍णुता के पितृ पुरूष : पं.सुन्‍दरलाल शर्मा

2 replies on “रघुबीर अग्रवाल पथिक के छत्तीसगढ़ी मुक्तक : चरगोड़िया”

bahut hi dam he bhiya rachna me———-bahut dino bad aisan rachna parhe br milis dhanyavad bhaiyaaaaaaaaaa

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