डेरी आँखी फर कत हे
लगथे आजेच जानत हौं
उनकर सुभाव जानत हौ
आतेच टू री ला पाहीं
दू महीना कहिन गइन तौ
गय चार, पाँच अधियांगे
रोजहा के डहर देखाई मा
आँखी मोर चेंधियागे
निरदयी मयाला टोरिस
रोजमारे जरय सिरावै
ओमा का नफा धरे हे
छोडे़ घर दुरिहा जावै
मोर रिसही के रिस देख लिही
जब उनला तभे पराहीं
डेरी आँखी फरकत हे
लगथे आजेच उन आहीं
का कहौ सुहावन तोला
तोरसो का बात लुकावंव
एको छिन नई देखँव
तब अगुन छगुन हो जावौं
बिन देखे पंच पंच महिना
मोला अचरित लागत हे
फुटिस कस नहिंये पुतरी
तब ले अभ्भो जागत हे
न भजन भाव भावय चिटको
न औटावै कुच्छू काँही
आ उतर बइठ कउँवा रे
का सिसतोन आजेच आहीं
ओ देख कनेखी मुस्की ढारत
हमर सास लंग जाहीं
फेर पाँव पलउटी पर लक्कर
पक्कर मोर करा आहीं
तै हर फरिका के ओधा
ले, बइठ देख लेबे ओ
एको, मैं कहँव लबारी
तौ, मोला कहि लेबेओ
एकमन कहिथे चुप्पे रहिहौ
जबरैन सहीं गोठि याहीं
आँखी आँखी झूलत हे
ऊँकर पागा अधबाहीं
आवत आवत आ जाहीं
फेर देखिहौ कइसे जाहीं
मैं अनपानी मइकरिहौं
जब ले किरिया नइ खाहीं
हम पसिया पी के जी जाबो
का गौटिन बनके करबो ओ
दिन रात जीव जरते रहही तौ
का थोकरा घर मरबो ओ
रेशमाही पितामड़ी नइ चाही
मोर बने रहै खदाही
गउ किरिया अब कभ्भू जाही़
तव लहुर न मोला पाहीं
फेर तो होरी के दिन म
अरसा मजिया ल बना हों
छिनमिनहा ला मैं जबरन
कोरीभर बरा खवाहौं
हे महमाई उन आहीं
तब जोडा़ फरहरी चढाहीं
डेरी आँखी फरकत हे
डेरी फरकत हे बांही।
– श्यामलाल चतुर्वेदी