सिक्छा आज दुकानदारी होगे हे, दुकानदारी का? ठेकादारी, ठेकादारी के नीलामी। ‘मोला सहे नहिं जात रहिस अनदेखी भूरि बरत रहि।’ हमर किसान के कोनो नइहे भाई। पइसा वाले के आजो पइसा हे। उंखरे सासन हे, रकस-रकस कमइया किसान, मजदूर ल आजो जानवर, गंवार समझे जाथे। साल भर म पूजा करे जाथे गाय गरूवा के देवारी के दिन ओइसने पांच साल म पूछ लेथे एक बेर, तहां ले फुरसद।
Read MoreYear: 2013
तबलावादक राकेश साहू संग विजय मिश्रा ‘अमित’ के गोठ बात
कला जगत म नइ चलय कोताही : राकेश साहू सुबह होती है, शाम होती है-जिन्दगी यूं तमाम होती हैं’। ये लाइन हर हाथ म हाथ धरे बैठे ठलहा बइठोइया आम मनखे मन बर सही बइठते। फेर अपन जिनगी म कुछु खास करे खातिर ठान लेवइया मनखे मन ऐला खारिज करत अपन परिवार के भरण-पोषण के संगे संग कला संस्कृति बर घलो समर्पित जीवन जीथे। आम अउ खास मनखे के अइसनेहे अंतर ल अपन तबला वादन के बल म सिध्द करोइया एक लोकवादक कलाकार के नाव आय श्री राकेश साहू। जेखर…
Read Moreआगे असाढ़
आगे असाढ़ गिरे पानी रे गियां । भिंजे परवा चुहे छानी रे ।। पवन चले पुरवाही । अचरा उढाही रे गियां ।। करेजा करे चानी चानी रे । आगे असाढ़ ………
Read Moreछत्तीसगढ़ी नाचा के जनक : दाउ दुलारसिंह मंदराजी
राजनांदगांव ले सात किलोमीटर दूरिहा रवेली गांव हे। रवेली गांव के दाउ बाड़ा के बड़का अंगना म बड़े पेट वाला नान्हे लईका दुलार खेलत रहय, उही समे मा लइका ने नाना सगा के रूप म आइस। नाना ह देखिस बाड़ा के अंगना म तुलसी चौंरा म माढ़े उडगुड़हा पथरा के मद्रासी भगवान कस अंगना म खेलत पेटला लइका हर दिखत हे। त ओ बबा ह नाती ला मजाक म ‘मद्रासी’ कहि दीस। लइका दुलारसिंह ला घर के मन मजाक म मद्रासी कहे लागिन। गांव म मद्रासी सब्द ह बिगड़त बिगड़त…
Read Moreअंग्रेजी के दबदबे के बीच छत्तीसगढ़ी की जगह
क्या आपने कभी किसी दुकान प्रतिष्ठान का नाम छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखा पाया है? व्यवसाय क्षेत्र में कहीं भी चले जाइए आप एक भी छत्तीसगढ़ी नाम पा जाएं तो यह कोलम्बस की अमरीका खोज जैसा पुरुषार्थ होगा। दुकानों प्रतिष्ठानों के अंग्रेजी नाम ही लोगों को लुभाते हैं। चाहे वह प्रतिष्ठान का मालिक हो या ग्राहक, अंग्रेजी नाम ही लोगों की जुबान पर चढ़े हैं। कस्बों देहातों में ये नाम देवनागरी लिपि में मिलेंगे। थोड़ा बड़े शहर में चले जाइए वहां तो आप देवनागरी लिपि में भी नाम देखने को तरस…
Read Moreबिकास के नाव म बिनास ल नेवता
उत्तराखंड म पाछु सोला जून के आय बाढ़ ल तो दुनिया ह देखत हे। ए तबाही ल भूलाना सायदेच कखरो ले संभव हो सकथे। ए तबाही म जिहां हजारों मनखे मन ह अपन परिवार के कतकोन मनखे मन ल गंवा दीन, उहें लाखो लोगन मन घर ले बेघर होगे। बिकराल तबाही के रूप म आय ए बाढ़ ह कोनों ल अनाथ कर दीस त कखरो ले उंखर चिराग ल छीन लीस। ए तबाही ले बांचके अवइया लोगन मन ह भगवान ल दुआ देवत हे। चारधाम के ए यात्रा ल लोगन…
Read Moreठुमरी
सावन ह आगे तैं आ जा संगवारी झटकुन नइ आए तव खाबे तैंगारी। नरवा अउ नदिया म ह आए हे मोर मन के झूलना बादर म टंगाए हे। हरियर-हरियर हावय भुइयॉं महतारी झटकुन नइ आए तव खाबे तैं गारी। बड़ सूना लागत हे सावन म अंगना अगोरत हे तोला ए चूरी ए कंगना। सुरता ह ठाढे हावय धर के आरी झटकुन नइ आए तव खाबे तैं गारी। सावन ह आगे तैं आ जा संगवारी झटकुन नइ आए तव खाबे तैं गारी। शकुन्तला शर्मा 288/7 मैत्रीकुँज भिलाई 490006 अचल 0788 2227477…
Read Moreमेजाई के उपहार
‘O’ HENRY (WILLIAM SYDNY PORTER) The Gift of the Magi (1862 – 1910) संक्षिप्त परिचय ’ओ. हेनरी’ के मूल नाम विलियम सिडनी पोर्टर रिहिस, इंकर जनम 11 सितंबर 1862 अउ निधन 05 जून 1910 म होइस। आप बैंक क्लर्क के नौकरी करत रेहेव। 1894 म 4000 डालर के चोरी के आरोप म आप ल जेल जाय बर पड़ गे। 1901 म छूटे के बाद आप अपन नाम ल बदल के ओ. हेनरी रख लेव। 1903 ले 1906 तक न्यूयार्क वर्ड मैगजीन बर आप हर हफ्ता एक कहानी लिखव। आपके चार…
Read Moreसाहित्य की वाचिक परंपरा कथा-कंथली: लोक जीवन का अक्षय ज्ञान कोश
समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तो वैदिक साहित्य भी श्रुति परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की भाषा में रची गई थी। श्रुति परंपरा के वे साहित्य, जो लोक-भाषा में रचे गये थे, लिपिबद्ध नहीं हो सके, परंतु लोक-स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोक मानस में गंगा की पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोक मानस पर राज…
Read Moreतैं ठउंका ठगे असाढ
तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ। चिखला के जघा धुर्रा उड़े, तपे जेठउरी कस ठाड़॥ बादर तोर हे बड़ लबरा ओसवाय बदरा च बदरा कब ले ये नेता लहुटगे? जीव जंतु के भाग फूटगे॥ किसान ल धरलिस अब तो, एक कथरी के जाड़॥ तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे असाढ़॥ धरती के तन हवै पियासे कपटी साहूकार ह हांसे। रूख-राई हर अइलागे कइसे हमर करम नठागे॥ बादर गरजे जुच्छा अइसे, गली म भुंकरे सांड़। तोर मन का हे तहीं जान? तैं ठउंका ठगे…
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