मोर गांव मया-प्रेम के

मोर गांव हवे अबड़ बढिय़ा, बोहवत नदिया, सुहावत तरिया। मान मनऊला छोटे-बड़े के ‘भेदभाव’ करै न कोना ला जिहां दया के तरिया छलकत हे मया-प्रेम के नदिय बोहवत हे घर-आंगन सब सजे-धजे आना-जाना लोगन के ले हवे, गली खोर अऊ संगी संगवारी बइठे मंदिर के चौरा में संझौती बने सियान संग बबा बिहारी। बरजत लइकन ल श्याम बबा, खेल धलेव बेरा हो मुंधियार घर जाके सब पढ़त-लिखत रे दाई-दा के ‘नाव’ गढ़व रे…। करौ जाव मंदिर में दिया बत्ति कहथे हमर सगुन बबा हर, निकाल सुटी नई ते देवन दे…

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लक्ष्‍मण मस्‍तुरिया के कविता : आडियो

अनियाव सहय अउ देखय समझय वो तो कायर आए बहादुर नोहे आघू पांव परे पाछू घात करे वो बइरी रे सगा पाहुन नोहे जाके जंग म खेलय होरी असली वोही लाल लहू ये महाउर नोहे (Chhattisgarhi Kavita Fagun by Laxman Masturiya लक्ष्‍मण मस्‍तूरिया की छत्‍तीसगढ़ी कविता)

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