सुरुज नवा उगा के देखन,
अँधियारी भगा के देखन।
रोवत रहिथे कतको इहाँ,
उनला हम हँसा के देखन।
भीतर मा सुलगत हे आगी,
आँसू ले बुझा के देखन।
कब तक रहहि दुरिहा-दुरिहा,
संग ओला लगा के देखन।
दुनिया म कतको दुखिया हे,
दुख ल ग़ज़ल बना के देखन।
बलदाऊ राम साहू
1 reply on “गजल”
बहुत सुघ्घर महोदय