मैं जनम के बासी खावत हौं

नवजवान,तैं चल, मैं पीछु-पीछु आवत हौं, कइसे चलना हे, बतावत हौं। ताते-तात के झन करबे जिद कभू, मैं जनम के बासी खावत हौं। तोर खांध म बइठार ले मोर अनुभव ल बस , मैं अतके चाहत हौं। दूर नहीं मैं तोर से , मोर संगवारी, पुस्तक म, घटना म, समे म,सुरतावत हौं। पानी के धार बरोबर होथे जवानी, सधगे त साधन बनगे, चेतावत हौं। बइठे रहिबे त पछुआ जाबे खुद से, सोंच ले, समझ ले, मैं बड़ पछतावत हौं। फूटे फोटका जस फेर नइ मिलै समै दुबारा, समै म सवार…

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लावणी छंद : श्रद्धा के सुरता माँ मिनी माता

भारत माँ के हीरा बेटी,ममतामयी मिनी माता। तै माँ हम संतान तोर ओ,बनगे हे पावन नाता। सुरता हे उन्नीस् सौ तेरा, मार्च माह तारिक तेरा। देवमती बाई के कुँख ले,जन्म भइस रतिहा बेरा। खुशी बगरगे चारो-कोती,सुख आइस हे दुख जाके। ददा संत बड़ नाचन लागे,बेटी ला कोरा पाके। सुख अँजोर धर आइस बेरा,कटगे अँधियारी राता। तै माँ हम संतान तोर ओ,बनगे हे पावन नाता। छट्ठी नामकरण आयोजन,बनिन गाँव भर के साक्षी। मछरी सही आँख हे कहिके,नाँव धराइन मीनाक्षी। गुरु गोसाई अगम दास जी,गये रहिन आसाम धरा। शादी के प्रस्ताव रखिन…

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दाई ददा भगवान हे

दाई ददा के मया दुलार म मनखे होथे बडका धनवान जी झन छोडव दाई ददा ल् जागत तीरथ बरथ भगवान जी जन्म देवइया दाई के करजा जिनगी भर नई छुटाए दाई के मया अमरित बरोबर दूध के संग म पियाये नवा रस्ता गढ़हईया हमर जिनगी रूप शील गुणवान जी दाई ददा के मया दुलार म मनखे होथे बडका धनवान जी उबड़ खाबड़ रस्ता जिनगी के ददा ह ओला चतवारे हे बाधा पिरा आईस जब जिंदगी ल् सुग्घर रखवारे हे पर उपकारी ददा के जिनगी धर्मात्मा युधिस्ठिर समान जी झन छोडव…

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लघुकथा : बड़का घर

जब मंगल ह बिलासपुर टेसन म रेल ले उतरिच तव रात के साढ़े दस बज गय रहिस। ओखर गाड़ी ह अढ़ाई घंटा लेट म पहुंचिस, जेखर कारन गाँव जवैया आखिरी बस जेहा साढ़े आठ छूटथे कब के छूट गे रहिस। ट्रेन ले उतर के वो हा सोचे लगिस के अब का करंव। फेर मंगल ह अपन पाकिट ले पर्स ल निकाल के देखिस, एक ठन पँचसौहा, दु ठन सौ रुपिया अउ दु ठन बिस्सी मने कुल सात सौ चालीस रुपिया वोमा रहिस। कातिक के महिना सुरु हो गय रहिस अउ…

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व्यंग्य : पहिचान

पिरथी के बढ़ती जनसंखिया ला देख के, भगवान बड़ चिनतित रहय। ओहा पिरथी के मनखे मनला, दूसर गरह म बसाये के सोंचिस। पिरथी के मन दूसर गरह म, रहि पाही के नहि तेकर परयोग करे बर, हरेक देस के मनखे कस, डुपलीकेट मनखे के सनरचना करीस। इंकर मन के रेहे बर घर, बऊरे बर समान, खाये बर अनाज, पहिरे बर कपड़ा उपलब्ध करा दीस। अलग अलग देस के डुपलीकेट मनखे मन बर, अलग अलग जगा, निरधारित कर दीस। देस के हिसाब से, ऊंकर संसकार अऊ रीत रेवाज ला ऊंकर दिल,…

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अमरैया के छाँव म

गांव के अमरैया हावे तरिया के पार म बारो महीना हवा बहत हे सुर सुर छाँव म हावे टूटहा झोपड़ी डोकरी दाई सुलगाहे हे आगी खुर खुर खांस्त हे सड़क ल सुनावत हे देख तो डोकरी दाई अमरैया म जिनगी गुजारत हे लोग लईका मन छोड़ दिन साथ अब अमरैया म हावे रुख राई के बनके रखवार जिनगी जियत हे अपन मन के अब भुलागे दुःख अउ खुसी के चोहना बेटा जबले होंगे परबुधिया अब कोनो निये पुछैया बस रुख राई के बने हे रखवार अमरैया म अपन जिनगी काटत…

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आल्हा छंद : भागजानी घर बेटी होथे

भागजानी घर बेटी होथ, नोहय लबारी सच्ची गोठ I सुन वो तैं नोनी के दाई, बात काहते हौ जी पोठ I1I अड़हा कहिथे सबो मोला, बेटा के जी रद्दा अगोर I कुल के करही नाव ये तोर, जग जग ले करही अंजोर I2I कहिथव मैं अंधरा गे मनखे, बेटी बेटा म फरक करत I एके रूख के दुनो ह शाखा, काबर दुवा भेदी म मरत I3I सोचव तुमन बेटी नई होय, कुल के मरजाद कोन ढोय I सुन्ना होय अचरा ममता के, मुड़ी धरके बईठे रोय I4I आवव एक इतिहास…

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सेवा गीत : कोयली बोलथे

कोइली बोलथे आमा डार, भवानी मइया तोर अँगना। उड़े झर झर चुनरी तुम्हार, भवानी मइया तोर अँगना।। कोइली…………………. मैना मँजूर चुन चुन फ़ुलवा, मोंगरा केकती ला लावय। गूँथे सुघ्घर गरवा के हार, भवानी मइया तोर अँगना। कोइली…………………. माता के चरन तीर बइठे, लँगूर चँवर ला डोलावय। धूप-दीप आरती उतार, भवानी मइया तोर अँगना। कोयली………………… नव तोर कलशा ला साजे, नव ज्योति मँय जलावँव। नित संझा बिहना तियार, भवानी मइया तोर अँगना। कोयली………………… बोधन राम निषाद राज सहसपुर लोहारा,कबीरधाम (छ.ग.) [responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”ये रचना ला सुनव”]

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कीरा – मकोरा

कीरा – मकोरा, पसु-पक्छी, पेड़- पउधा … देखथन नानम जोनि ल, अउ सोंचथन, अबिरथा हे उंखरो जीवन, खाये के सुख न जिये के, सोंचे – समझे के सक्ति न भगवान के भक्ति। का काम के हे ग अइसनों जिनगी? बेकार हे, बोझ हे। अउ उमन देखत होहीं जब हम ल, सोंचत होहीं- कीरा – मकोरा ले गेये बीते हे जिनगी मनखे के। खाए के सुख न जीये के, सोंचे के सक्ति न समझे के। हाय- हाय, खाली हाय -हाय संझा ले बिहिनिया तक, बिहिनिया ले सांझ तक। लदे रहिथे भय,भूख,भाव…

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लघुकथा : अमर

आसरम म गुरूजी, अपन चेला मनला बतावत रहय के, सागर मनथन होइस त बहुत अकन पदारथ निकलीस । बिख ला सिवजी अपन टोंटा म, राख लीस अऊ अमरित निकलीस तेला, देवता मन म बांट दीस, उही ला पीके, देवता मन अमर हे । एक झिन निचट भोकवा चेला रिहीस वो पूछीस – एको कनिक अमरित, धरती म घला चुहीस होही गुरूजी …..? गुरूजी किथे – निही…… एको बूंद नी चुहे रिहीस जी …। चेला फेर पूछीस – तुंहर पोथी पतरा ला बने देखव, एक न एक बूंद चुहेच होही …?…

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