-डॉ. चितरंजन कर
निस्संदेह गज़ल मूलत: उर्दू की एक काव्य विधा है, परन्तु दुष्यंत कुमार के बाद इसकी नदी बहुत लंबी और चौड़ी होती चली गई है। जहाँ-जहाँ से यह नदी बहती है, वहाँ-वहाँ की माटी की प्रकृति, गुण, स्वभाव और गंध आदि को आत्मसात कर लेती है, जैसे नदी अलग-अलग प्रांतों, देशों में बँटकर भी अपना नाम नहीं बदलती, वैसे ही छत्तीसगढ़ में यह छत्तीसगढ़ी गज़ल के नाम से जानी जाने लगी है।
छत्तीसगढ़ी में जिन कलमकारों ने गज़ल-विधा को आगे बढ़ाया है, उनमें डॉ. प्रभंजन शास्त्री, रामेश्वर वैष्णव एवं मुकुंद कौशल के नाम अग्रण्य है। मुकुंद कौशल तो जैसे छत्तीसगढ़ी गज़ल के पर्याय ही हो गए हैं। इनकी तीन-चार पुस्तकें अब तक आ चुकी हैं। भाई बलदाऊ राम साहू की छत्तीसगढ़ी गज़लें इस दिशा में विकास की एक और कड़ी है, उनकी गज़लों में छत्तीसगढ़ी की माटी की सोंधी महक है। ऐसा लगता है उनकी भाषा की सहजता, सरलता और तरलता मानो आपस में बातचीत कर रहे हों, कहीं कोई उलझाव नहीं, सीधे-सीधे अपनी बात कहने की कोशिश है, पर सपाट नहीं है। सरल होना, सरल सोचना, सरल बोलना-लिखना, सरल जीना कितना कठिन है, यह सुधीजन भली-भाँति जानते हैं। एक सरल रेखा खींचने के लिए स्केल की जरूरत होती है, परन्तु टेढ़ी-मेढ़ी (वक्र) रेखा के लिए कोई पैमाना नहीं होता।
बलदाऊ राम साहू की छत्तीसगढ़ी गज़लों में समकालीन जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जो न मिले। प्रेम, नीति, राजनीति, अर्थव्यवस्था की संस्कृति, पर्व त्योहार, ऋतु, कृषि, कृषक, पर्यावरण, गाँव, शिक्षा, देश इन गज़लों में अनेक रूपों में चित्रित हुए है, जिनमें आमजन की समस्याएँ हैं, परन्तु प्रत्येक गज़ल में वह सचेत है और सबको सचेत करता है। सुनहरे भविष्य की आशा लेकर ‘सुरुज नवा उगइया हे’ को सार्थक करता है।
”दूसर के रद्दा मा चलना,
सिरतों हे बेकार रे भाई।
‘बरस’ हवै, तुरते रद्दा मा,
रेंगे बर तइयार रे भाई।’’
जहाँ की संस्कृति की अपनी एक अलग पहचान है उसके भिन्नï-भिन्न पकवान, खान-पान, कृषि की अपनी पहचान है तथा जिसके पास आगे बढऩे का हौसला भी है, जिसे उन्होंने सहजता से उकेरा है-
”सुआ, ददरिया, करमा के हम तान लिखन,
अउ संगे मा चलौ ग्यान-बिग्यान-लिखन।”
इस गज़ल संग्रह में बलदाऊ जी ने छत्तीसगढ़ की महिमा-मात्र गाकर आत्ममुग्ध होने वालों को सावधान किया है कि ज्ञान-विज्ञान के बढ़ते चरण के साथ-साथ आगे बढऩा भी जरूरी है। यहाँ धार्मिक सहिष्णुता की एक मिसाल देखिए-
”मंदिर-मस्जिद जम्मो एक्के संग हावै,
बात हे बढिय़ा इनकर चलौ बखान लिखन।”
धार्मिक पाखंड का बोलबाला जितना आधुनिक युग में देखने को मिलता है, उतना पहले कभी नहीं था। वृद्ध माता-पिता का तिरस्कार भला कैसे धार्मिक हो सकता है?
”जीयत देवता ल दुत्कारन,
पथरा के आगू मुड़ी नवावन।
जिनगी भर जउन हाड़ा टोरिन,
अंतकाल मा भूखन-लाँघन।”
छत्तीसगढ़ी मनखे भले ही जैसा हो, पर उसका मन उज्वल, धवल रहता है, कमी है तो बस स्वाभिमान की। देखिए-
तन के करिया मन के उज्जर जम्मो झन,
छत्तीसगढिय़ा मन अपनो सुभिमान लिखन।
नए युग के शंखनाद के साथ चलते हुए भी हमारे जवान और किसान सर्वप्रथम पूजनीय, वंदनीय है-
च्बरसज् कहत हे बखत नया आवत हावै,
जै जवान संग जै-जै किसान लिखन।
व्यंग्य सच का कलात्मक रूपायन है, जो कथन और संवेदनात्मक तीव्रता को धारदार बना देता है। व्यंग्य के लिए धर्म और राजनीति से बढ़कर और कौन-सा विषय हो सकता है, जहाँ आडंबर अधिक और असलियत बहुत कम रहती है। कुछ बानगी देखें-
गोल्लर मन हर देस ल चर दिन,
कर तब ले निस्तार रे भाई।
अँधवा पीसय, कुकुर खावय
जग होगे अँधियार रे भाई।
धरम-जात के टंटा पालें सुवारथवस,
राम-रहीम के झंडा अपन उँचावत हें।
मनखे मन ठलहा अउ कमचोरहा हे
कुरसी पा के उहीच हा इतरावत हे।
बाँटत हे जउने अँधियारी,
हाथे मा ओकर मसाल हे।
सत्तïा उप्पर करै सवारी,
ओमन सिरतों मालामाल हें।
संसद मा लड़त हावैं नेता मन
तभो ले नामी अउ महान संगी।
देस ल चर डारिस उही मन हर,
तुमन देखौ बइठे मचान संगी।
कहते हैं कि जब झूठ को बार-बार दोहराया जाता है, तब सच लगने लगता है, परन्तु अंततोगत्वा वह उजागर हो ही जाता है।
कौनो मोला हूँत कराइस
खाल्हे ले मैं ऊपर देखेंव।”
नींद खुलिस तब अचरज परगे
जम्मो सियासी असर देखेंव।
छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान प्रदेश है, जिसे ‘धान का कटोरा’ भी कहा जाता है, परन्तु भारतीय किसान की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। कृषक-पुत्र बलदाऊ भला इससे द्रवित कैसे न हों। लिखते हैं-
किसान के पसीना के नइ हे मोल,
कोचिया मन के गाल ह लाल होगे।
उनकी आर्थिक स्थित पर व्यंग्य देखिए-
”नगदी के संगी अब अकाल होगे
इही पाय के सस्ता पताल होगे
खेत ल लील डारिस सोमना अउ बदउर,
ये जुग मा करगा ह घलो धान होगे।”
नोटबंदी का असर किस कदर जन-जीवन पर पड़ा, देखिए-
”अपने मन ह होगे बिरान संगी
नोटबंदी टोनही-मसान संगी।”
पानी कस मोल होगे जिनिस के,
रोवत हे जम्मो किसान संगी।
इस उत्तर-आधुनिक युग में विकास की बात होती रही है, परन्तु वास्तव में यह भ्रम है। गाँव-गाँव नहीं रहे, शहर बड़े से और बड़े होते जा रहे हैं। जहाँ कभी सौहार्द, शांति, विश्वास और प्रेम का बोलबाला था, वहाँ अब स्थिति बदल गई है-
”कपटी मन अगुवा होगे, करथे ग नियाव,
परपंच ह ग्यान होगे, अब तो गाँव मा।
सुमत संग जिये के आस अउ विस्वास रहै,
मितान ह बइमान होगे, अब तो गाँव म।
गुरतुरू गोठ नँदागे, टेंचरही गोठियाये,
बानी हर तीर-कमान होगे, अब तो गाँव मा।”
गाँव का किसान सूखी रोटी में ही पकवान का आनंद ले लेता है, उसे दूसरों के प्रति अन्याय और शोषण की आदत नहीं होती-
”का बर दूसर के छाती मा दार दरत हौ,
च्बरसज् बर सोंहारी, सुक्ख रोटी आय।”
जमाने के साथ-साथ प्रकृति में भी बदलाव आने लगा है ऋतुएँ अपना क्रम भूल गई हैं। ऋतुओं के राजा बसंत का आगमन होते ही प्रकृति का सौंदर्य निखर जाता है, परन्तु अब-
बसंत आगे, कौनो खबर नइ दिस।
आजू-बाजू कौनो नजर नइ दिस।
न फूलिस सेमर अउ न डहकिस परसा,
नीमुआ घलो अपन असर नइ दिस।
चुप हे कोयली, आमा महकत नइ हे,
संगे-संगवारी हाँथ गर नइ दिस।
पर्व-त्योहार छोटे-बड़े सब के मन में उल्लास-उमंग जगाते हैं, परन्तु अब वे केवल नाम के लिए रह गए हैं- कहाँ तो पहले यह था-
बड़का राखी तिहार रे भाई।
का मालिक बनिहार रे भाई॥
और कहाँ अब-
”जम्मो नाता-रिस्ता टूट गे,
अँगना म दीवार रे भाई।
बहिनी मन अड़बड़ दुरिहा गे,
परोसी बर हे पियार रे भई।
कइसे हम बाँधन राखी-डोरी
भीतर हवै तकरार रे भाई।
शिक्षा संस्कार है और विद्यलय और शिक्षक कभी मंदिर की तरह पूजनीय थे, पवित्र थे। अब तो शिक्षा का व्यवसायीकरण भी हो गया है-
इस्कूल सब बैपारी होगे
लाइलाज बीमारी होगे।
लइका मन हर भालू-बेंदरा
गुरूजी घलो मदारी हो गे।
जउन ला बरम्हा कस मानिन हे
आज सबो बर गारी होगे।
छेरी-पटुरू, कुकरी, मुरगी
गिनइया अधिकारी होगे।
शिक्षक रहिन, होगे करमी
जिनगी उँकर उधारी होगे।
गज़ल मूलत: प्रेमी-प्रेमिका का वार्तालाप है। बलदाऊ ने भी अनेक $गज़लें प्रेम पर लिखी हैं। कुछ बानगी-
”तोर रूप ला आँखी म उतार लेतेंव,
तैं आ जाते गोई, हाँक पार लेतेंव।
प्रेम पर्व-त्योहार में परवान चढ़ता है। होली में प्रेम का चित्र देखिए-
”रंग-गुलाल संग मिल के फागुन होली आइस,
हवा के धुन मिलजुल के हँसी-ठिठोली गाइस।
चुरी खनकि, झुमका बोलिस, बिंदिया हरसाइस,
लइका बन के पुरवाही नाचिस, हमजोली गाइस।
रंग पियार के नोनी के आँखी मा समा गे,
संभर के निकरिस, ओकर लहँगा-चोली गाइस।”