बड़ उथल-पुथल हे मन म,
आखिर का पायेंव जीवन म?
जंगल गेयेंव घर,परिवार छोड़ के,
घेर लिस ‘तियागे के अहम’ उंहा भी बन म।
देह के बंधन ले मुक्ति बर देह मिले, कहिथें,
अउ पूरा जिनगीए सिरागे देह के जतन म।
अमका होही, ढमका होही, कहिथें,
फलाने दिन,दिसा,फलाने लगन… म।
बड़ दिक्कत हे, दुख हे दुनों हाल म,
लइका हे अउ नइहे तभो आंगन म।
कमा -कमा के मर गेंव मैं,
दूसर मरगे सिरिफ जलन म।
ये जीवन-वो जीवन,सरग-नरक, पाप-पुन…,
महिं जस मथागे जिनगी,उलझन म।
थक गेंव सांति अउ खुसी खोजत,
फेर कभू नइ दिखिस नयन म।
केजवा राम साहू “तेजनाथ”
बरदुली, पिपरिया, कबीरधाम
7999385846